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________________ ४३.] मरणकण्डिका ध्यानयोधावशीभूता रागषमताकुलाः । ज्ञानांकुशं विना यांति तदा विषयकाननम् ॥१४८५॥ तदा शमबने रम्ये कषायाक्ष महागजाः । रम्यमारणा न कुर्वन्ति दोषं साधोर्मनागपि ॥१४८६॥ ॥ इति सामान्यकषाय निर्जयः ।। शम्बे वर्णे रसे गंधे स्प” साधुः शुभाशुभे । रागद्वेष परित्यागी हृषीकविजयीमतः ।।१४८७॥ हृषीकविजयः सद्भिः कटुकोऽपि निषेव्यते । भैषज्यभिव बांद्धिनित्यसौख्यं यथाजसा ॥१४८८।। -- जब ज्ञानांकुश द्वारा कषाय और इन्द्रिय रूपी महागज वशमें किये जाते हैं तब वे शांतभाव रूपी सुदर उपवन में रमते रहते हैं फिर वे साधुके महाव्रत आदिमें किंचित् भी दोष नहीं करते ।।१४८६॥ इसप्रकार सामान्यरूपसे कषायोंको जोतनेका कथन किया । अब आगे सामान्यरूपसे इन्द्रियोंको जीतनेका कथन करते हैं शुभ और अशुभ ऐसे शब्द, वर्ण, रस, स्पर्श और गंधमें राग और दोषका त्याग करने वाला साधु इन्द्रिय विजयी माना जाता है ।।१४८७।। पांचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करना यद्यपि कटुक-प्रत्यंत कठिन है तो भी सज्जन या साधु पुरुषों द्वारा सेवनीय है जो कि वास्तविक नित्य सुख चाहते हैं । जैसे नीरोगपनेका सुख चाहने वाले पुरुष कडुआ भी औषध हो तो भी उसका सेवन करते हैं ॥१४८८। भावार्थ- आचार्य महाराज क्षपक एवं साधुओंको उपदेश देते हैं कि भो सज्जनों ! आपको इन्द्रियोंपर विजय करना कठिन लगता है तो भी इस कार्यको तुम्हें अवश्य करना चाहिये क्योंकि इन्द्रिय विजयी पुरुष ही शाश्वत मुक्ति सुखको प्राप्त कर सकता है अन्य नहीं, जैसे स्वास्थ्यको चाहने बाला पुरुष कडुवी औषधिका सेवन करता है कडुवी औषधिके बिना स्वास्थ्य लाभ संभव नहीं है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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