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________________ ५४. ] मरणकण्डिका भूत्वा भूत्वा मृतो यत्र जीवो मेऽयमनंतशः । प्रणमात्रोऽपि नो देशो विद्यते स जगत्त्रये ॥१८६५॥ ये कल्पानामनंतामा समयाः सन्ति भी पते ! मातो मृतः समस्तेषु शरीरी तेष्वनेकशः ॥१९६६॥ ग्रहण करता है तब एक कर्म परिवर्तन होता है । दोनोंका समुदायरूप काल एक द्रव्य परिवर्तनका काल होता है। रंगभूमिमें जैसे नट अनेक प्रकारके आकार रूपोंको धारण करता है और विचित्र चेष्टायें करता है वैसे संसार रूपी रंग भूमिमें जीव रूपी नट अनेक आकारसंस्थान धारण करके पुनः छोड़ देता है फिर ग्रहण करता है, इसप्रकार द्रव्य परिवर्तन करता है ॥१८६४॥ क्षेत्र परिवर्तनसीनों लोकों में ऐसा कोई एक प्रदेश भी शेष नहीं है कि जहांपर मेरा यह जीव जन्म से लेकर मरा नहीं हो । सर्व ही प्रदेशों में अनंत बार जन्म मरण किया है ॥१८६५।। विशेषार्थ-लोकाकाशके आठ मध्य प्रदेशोंको ( वे प्रदेश मेरुके जड़में हैं ) अपने शरीरके मध्यमें लेकर जघन्य अवगाहनासे सूक्ष्म निगोदिया जीवने जन्म लिया और क्षुद्र भवप्रमाण (श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण) कालतक जीवित रहकर मरा पुनः उसी अवगाहनासे वही जीव उसी सुमेरुको जड़में उत्पन्न हुआ, उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागमें जितने प्रदेश हैं उतनी बार उसी स्थान पर जन्म मरण किया । फिर एक प्रदेश आगे बढ़कर जन्म लिया इसतरह एक एक प्रदेश आगे बढ़ाते हुए क्रमशः संपूर्ण लोकको अपना जन्म मरणका स्थान बनाया, इसमें जितना काल लगता है वह एक क्षेत्र परिवर्तन कहलाता है। काल परिवर्तन-- हे यते ! अनंत कल्पकालोंके जितने समय हैं उन सभी समयों में यह संसारी जीव अनेक बार जन्मा और मरा है ।।१८६६।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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