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________________ ध्यानादि अधिकार [ ५४१ प्रवेशाष्टकमत्यस्य शेषेषु कुरुते भवो । उद्वर्तनपरावर्त संतप्ताप्स्विव तंदुलाः ॥१८६७।। असंख्यलोकमानेषु परिणामेषु वर्तते । शरीरी भव संसारे कर्मभूपयशीकृतः ॥१८६८।। अघन्या मध्यमा पर्या निविष्टाः स्थितयोऽखिलाः । प्रतीतानंतशः काले भवभ्रमणकारिणा ॥१८६६॥ परिणामांतरेगी सर्वदा परिवर्तते ।। वर्णेषु चित्ररूपेषु कृकलास इव स्फुटम् ॥१८७०। विशेषार्थ-उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें एक जीवने जन्म लिया और अपनी आयु पूर्ण कर मरा, दूसरीबार उत्पसपिणीके दूसरे समय में जन्मा, फिर तीसरे उत्पसपिणो के तीसरे समयमें जन्मा इसतरह उत्पस पिणीके जितने समय हैं उतनी बार क्रमबार जन्मा शिवबीग. इसी त ह जन्म द्वारा पूरित किया, इसमें जितना काल लगा यह एक काल परिवर्तन है। एक जीवके असंख्यात प्रदेश होते हैं उनमें मध्यके आठ प्रदेश सदा स्थिर रहते हैं, शेष समस्त प्रदेश उद्वर्तन परावर्तन करते रहते हैं अर्थात् ऊपर नीचे घूमते रहते हैं, जैसे अग्नि पर बर्तन में पकने के लिये रखे हुए चावल ऊपर नीचे करते रहते हैं ।।१८६७।। भाव परिवर्तनभव संसारमें कर्मरूपी राजाके वश हुआ यह जोब असंख्यात लोक प्रमाण परिणामोंमें वर्तन करता है अर्थात् एक जीवके अध्यवसान स्थान असंख्यात लोक प्रमाण है। कर्मोंकी जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट तोनों प्रकारको स्थितियों को बांधने में कारणभूत स्थिति बंधाध्यवसान स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं, इन सब भव भ्रमणकारी परिणामोंको अतीत कालमें अनंतबार धारण किया है ।।१८६८।।१८६६।। इन उपर्युक्त परिणामों में संसारी जीव सदा ही परिवर्तन करता रहता है अर्थात् बदल बदलकर अन्य अन्य परिणाम करता है। जैसे कृकलास, सरड, गिरगिट विचित्र वर्ण रूपोंमें परिवर्तित होता रहता है ।।१८७०।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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