________________
५४२ ]
मरणकण्डिका
आकाशे पक्षिणोऽन्योन्य स्थले स्थलविहारिणः । जले मीनाश्च हिसन्सि सर्वत्रापि भयं भवे ।।१८७१॥
विशेषार्थ-नवीन कन्धमें कारमा स्याम और मोग है नाशय परिणामके असंख्यात भेद हैं इन्हें कषाय बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। मनोवर्गणा आदिके आलंबनसे आत्म प्रदेशोंमें कंपन होना योग है, जिसके द्वारा कि आत्मा कर्मवर्गणाको आकृष्ट करता है ग्रहण करता है । इसके असंख्यात भेद हैं । पात्माके परिणाम कर्मों की स्थितिमें कारण हैं तथा अनुभागमें कारण हैं उनको क्रमशः स्थिति बन्धाध्यवसान स्थान और अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। कर्मोको जघन्य आदि स्थिति भी असंख्यात प्रकारको है। इसतरह योगस्थान, कषाय अध्यवसाय स्थान, स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान और कर्मस्थितिके भेद ये सब ही असंख्यात लोक असंख्यात लोक प्रमाण हैं । इनका क्रमशः परिवर्तन होने में जो बड़ा भारा काल लगता है वह भाव परिवर्तन कहलाता है । इसका विस्तृत विवेचन जीवकाण्ड आदि ग्रंथोंमें अवलोकनीय है ।
नरकमें जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट तैतीस सागर प्रमाण है । कोई जीव जघन्य आयु लेकर जन्मा और उसको पूर्ण कर मरा । दूसरी बार भी उतनी ही आयु लो । इसतरह दस हजार वर्षमें जितने समय हैं उतनी बार उसी आय को पाया, फिर एक समय बढ़ाया, दो समय बढ़ाया ऐसे करते हुए तैतीस सागर तक बढ़ाकर आयुको भोगा । तिर्यंच तथा मनुष्यकी जघन्य आय अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्य को है । कोई जीव जघन्य आयु लेकर तियंच हुआ, अन्तर्मुहर्तके जितने समय हैं उतनी बार उसी आयुको लेकर जन्म लिया फिर एक समय क्रमसे बढ़ाते हुए तीन पल्य प्रमाण तक बढ़ाया । ऐसे ही मनुष्य संबंधो आयुको लेकर मनुष्य गतिमें जघन्यसे उत्कृष्ट तक क्रमसे मायुको प्राप्त किया । देवगति में नरकगतिके समान कथन है किन्तु विशेष यह है कि उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर प्रमाए लेना क्योंकि इकतीस सागरसे अधिक आयुवाले देव सम्यग्दृष्टि ही हुआ करते हैं और सम्यग्दृष्टि इन पंच परावर्तनको नहीं करता है । इसप्रकार चार गति संबंधी जघन्यसे उत्कृष्ट तककी आयू को क्रमसे भोगने में जितना अनंतकाल लगता है वह एक भव परिवर्तन कहलाता है । प्रत्येकका काल अनंत होते हुए भो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पंच