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ध्यानादि भधिकार
[ ५४३ शयालोमुखमभ्येत्य व्यापारब्धो यथा शशः । मन्यानो विधरं दीन: प्रयाति यममंदिरम् ॥१८७२॥ क्षुत्तृष्णावि महाब्याधप्रारब्धाचेतनस्तथा । प्रज्ञो दु:खकरं याति संसारभुजगाननम् ॥१८७३।। यावन्ति संति सौख्यानि लोके सर्वापु योनिषु । प्राप्तानि तानि सर्वारिण बहुवारं शरीरिणा ।।१८७४।। अवाप्यानंतशो दुःखमेकशी लभते यदि । सुखं तथापि सर्वाणि तानि लब्धान्यमेकशः ॥१७५।।
------ -- -..परावर्तनों में क्रमसे आगे आगे अनंतगुणा अनंतगुणा काल लगता है । मिथ्यात्व आदिके वशीभूत होकर इस मोहो जीबने ऐसे परिवर्तन अनंतबार कर लिये हैं । सम्यक्त्व प्राप्त होनेपर यह परिभ्रमणा अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण द्रव्य परिवर्तनके भेदरूप नोकर्म परिवर्तन प्रमाण शेष रहता है । अत: सर्व प्रयत्न से सम्यक्त्व रत्नको अवश्य हो प्राप्त कर लेना चाहिये ।
संसारमें सर्वत्र भय है । देखो ! आकाशमें छोटे पक्षियोंको बड़े पक्षी त्रास देते हैं या समान शक्तिवाले पक्षी परस्परमें घात करते हैं । स्थल पर विचरने वाले हिरणादिको सिंहादि पीड़ा देते हैं मारकर खाजाते हैं। जलमें मीन परस्परमें घात करते हैं । एक दूसरेको निगल जाते हैं ।। १८७१।।
जैसे खरगोश व्याघ्रसे पीड़ित होकर दौड़ता है और अजगरके मुख में "यह बिल है" ऐसा मानकर घुसता है और यह बेचारा मृत्युको प्राप्त होता है । ठोक इसी प्रकार भूख प्यास आदि रूप महाव्याचसे पीड़ित हुआ यह अज्ञजोव संसाररूपी अजगरके मुस्त्रमें "यहां सुख होगा" ऐसा समझकर प्रविष्ट होता है और बार-बार जन्म मरणके दुःखको पाता है ॥१८७२।।१९७३।।
___ इस लोकमें सर्व योनियों में जितने सुख हैं उन सबको इस जीवने बहुत बार प्राप्त किया है ।।१८७४॥
इस संसारका सुख भो जब अनंतबार दुःखको भोग लेता है तब एक बार प्राप्त होता है अर्थात् अनंतबार दुःख फिर एक बार सुख । पुनः अनंतबार दुःख तो