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________________ ५४४ ] मरणकण्डिका स चतुर्भिस्त्रिभिर्वाभ्यामेकेनाक्षेरण वजितः । संसारसागरेऽनंते जायतेऽनन्तशोऽमुमान् ॥१८७६॥ विचक्षुर्बधिरो मूको वामनः पामनः कुणिः । दुर्वी दुःस्वरो मूखंश्चुल्लश्चिपिटनासिकः ।।१५७७॥ ध्याधितो व्यसनी शोको मस्सरोपिशुनः शठः । दुर्भगो गुणवितषी पंचको जायते भवे ॥१८७८।। क्षुधितस्तृषितः प्रातो दुःखभारवशीकृतः । एकाकीदुर्गमे दीनो हिंडते भवकानने ॥१८७६।। - - - - - . एक बार सुख, इस क्रमसे दुःख अधिक समय तक और सुख कम समय तक रहता है तथापि संसारके जो भी इन्द्रिय जन्य सुख हैं उन सभीको भनेकों बार प्राप्त कर चुके हैं ॥१७॥ विशेषार्थ-संसारके राजा, महाराजा, विद्याधर, देव, भोगभूमिज संबंधी सुख इस जीवने अनेकों बार भोग लिये हैं, केवल गणधर, नारायण, प्रतिनारायण, बलदेव, चक्री, पंचानुत्तर विमान वासी देव सौधर्मेन्द्र-इन्द्राणी इनके लोकपाल एवं लोकान्तिक देव इनके सुख प्राप्त नहीं किये हैं, क्योंकि ये स्थान सम्यम्दृष्टि जीव हो प्राप्त करता है तथा इन स्थानोंको प्राप्त करनेवाले जीव आसन्नभव्य या तद्भव मोक्षगामी है । यह जीव अनंत संसार सागर में परिभ्रमण करता है उसमें कभी चार इन्द्रियों से रहित, कभी तीन इन्द्रियोंसे, कभी दो इन्द्रियोंसे और कभी एक इन्द्रियसे रहित होकर जन्म लेता है अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय होता है, एक एक पर्याय में अनंतों बार उत्पन्न होता है । सबसे अधिक काल एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक आदि स्थावरों में व्यतीत होता है, उससे कम दोन्द्रियमें, उससे कम त्रीन्द्रिय में इसप्रकार भ्रमण करता है ॥१८७६।। कभी पंचेन्द्रिय भी होता है तो उसमें नेत्रविहीन होता है, कभी बहरा, मुक, बौना, पंगु, कुबड़ा, बदसूरत, कर्कश वाणी युक्त, मूर्ख, चिड़चिड़ा स्वभाव यक्त, चिपटी नाकबाला, दोघं रोगो, व्यसनी, सदाशोक संतप्त, मत्सरी, चुगलखोर, ठग, शठ, सबको बुरा लगनेवाला-दरिद्री, गुणोंमें द्वेष रखनेवाला, छल-कपटी, ऐसी ऐसी हीन-दोन दुःखो पापमय अवस्थाओंको संसारमें पाता रहता है । संसाररूपी भयानक
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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