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________________ ध्यानादि अधिकार एकेंद्रियेष्वयं जीवः पंचस्वपि निरंतरम् । उत्थानवीर्यरहितो दोनो बंभूमते चिरम् ।।१८८० ।। चित्रदुःखमहावर्तामिमां संसृतिवाहिनीम् । अज्ञानमिलिती जो गाते पायपासम् ॥१८८१ ॥ इंद्रियार्थाभिलाषारं चंचलं योनितेमिकं । मिथ्याज्ञानमहातु मं दुःखकीलकमंत्रितम् ॥१८८२ ॥ कषायपट्टिकाबद्ध जरामरणवर्तनम् 1 संसारचक्रमारुह्य चिरं भ्राम्यति चेतनः ।। १८८३ ।। वहमानो नरो भारं क्वापि विश्राम्यतिध्रुवम् । न देहभारमादाय विश्राम्यति कदाचन ॥१८८४ ।। [ ५४५ जंगल में दुःखभारसे परवश हुआ यह दीन अनाथ प्रागी भूखा प्यासा, थका, मांदा हुआ अकेला ही हिंडता रहता है- विश्राम रहित सदा परिभ्रमण कर रहा है । आशय यह है कि मनुष्य पर्याय में भी जन्म लेता है तो सुंदर सुभग धनवान् सर्व गुण संपन्न, इन्द्रियों के विकलता से रहित ऐसा बहुत कम हो पाता है ।।१८७७ ।। १८७८ ।। १८७६ ।। + पाँच प्रकारके पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक स्थावर एकेन्द्रिय पर्यायोंमें यह जीव वीर्य एवं बलसे हीन होता हुआ चिरकाल तक भ्रमण करता है इन स्थावरोंमें पोसे जाना, जलाना, बुझाना, पकाना, मसल डालना, छीलना, करोतसे कुल्हाड़ीसे काटे जाने, बहा देना आदि बचनके अगोचर ऐसे महा भयानक दुःखोंको भोगता है ।। १८८०॥ यह संसार विशाल एवं भयावह एक नदी है जिसमें पापरूप जल प्रवाह है, अनेक प्रकारके दुःख रूपी महाआवर्त उठ रहे हैं, उसमें यह अज्ञानसे आकर डूबता है, प्रवाह में बहता जा रहा है ।। १८८१ ।। यह संसार वाहन स्वरूप है, जिसमें इन्द्रियों के स्पर्श रस आदि विषयोंकी अभिलाषा रूपी अर लगे हुए हैं, जो बड़ी तेजी से चल रहा है, कुयोनि जिसकी धुरा है, इसमें मिथ्याज्ञानरूपी तु बा है, दुःखरूपी कीलोंसे नियंत्रित है, कषायरूपी पट्टिकासे बद्ध है, जरा और मरणरूपी दो पहिये वाला ऐसा यह संसार चक्र वाहन गाड़ी या रथ है इसमें आरोहण करके यह वेतन प्राणी चिरकाल तक भ्रमण करता है ।।१८६२ ।। १८८३ ॥ गेहूं आदि अनाजके बोरे आदि भारको ढ़ोनेवाला पुरुष कभी विश्राम प्राप्त कर लेता है किन्तु शरीर रूपी भारको ढोनेवाला यह संसारी प्राणी कभी भी विश्राम प्राप्त नहीं करपाता ।। १८८४ ।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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