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________________ ५४६ ] मरणकण्डिका बमोति जिरं वीरो मोहचतमसावृतः । संसारे दुःखितस्वान्तो विचक्षुरिय कानने ॥१८८५॥ भीतः करोति दुःखेभ्यः सुखसंगमलालसः । अज्ञानतमसा छन्नो हिसारंभाविपातकम् ॥१८८६॥ हिसारंभादिकोषेण महोतनवकल्मषः । प्रदह्यते प्रविष्टोऽडो पावकादिव पावकम् ॥१८८७॥ छंद-स्रग्विणीगल्ता मुचता वारुणं कल्मषं सौख्यकांक्षण जीवेन मूहात्मना । भूम्यते संसृतौ सर्वदा दुःखिना पावनं मुक्तिमार्ग ततोऽपश्यता ॥१८८८।। ॥ इति जन्मानुप्रेक्षा ।। जैसे नेत्र रहित व्यक्ति जंगलमें दुःखी होकर भटकता है वैसे संसार रूपी काननमें यह जीव मोह रूपी महांधकारसे आवृत्त हो दुःखित मन युक्त होकर चिरकाल तक भमण करता है ।।१८८५।। मोही अज प्राणो दुःखोंसे भयभीत रहता है वह सदा सुख प्राप्तिको इच्छा युक्त हो अज्ञान रूप अंधकारसे ढ़क गया है ज्ञान जिसका ऐसा होता हुग्रा हिंसा, झूठ, चोरी आरंभ आदि पातकोंको करता है अर्थात् सुखकी वांछासे पाप कर्म निंद्य कर्म करता है ।।१८८६॥ इसतरह वह हिंसा आरंभ आदि दोष द्वारा नये-नये असाता वेदनीय, नोच-गोत्र नरकायु आदि पापोंका संचय करता है जिससे कुगतिमें प्रविष्ट हो दुःखसे सदा जलता है जैसे एक अग्निसे निकलकर दूसरे अग्निमें प्रवेश करनेवाला सदा जलता रहता है, वैसे एक जन्म में सुखकी इच्छासे हिंसादिको करके पाप संचय करता है और दुःखी हो रहता है पुन: उस पापोदयसे कुगतिमें जन्म होनेके कारण दुःखी होता है ।। १८८७।। सुखकी आकांक्षासे युक्त मूढ़ जीव द्वारा तीव्र पापकर्मका ग्रहण करना और छोड़ना यह कार्य सदा किया जाता है इसतरह सर्वदा दःखी होता है इसलिये परम पावन रत्नत्रय रूप मोक्षमार्गको नहीं देखता है, नहीं जानता है, इसप्रकार संसार में भ्रमण ही करता रहता है ॥१८८८।। भावार्थ-द्रव्यक्षेत्र आदि पंचपरावर्तनों का स्वरूप चिंतन करना, जन्म-मरणके दःख इस जीवने किसप्रकार अनंतबार प्राप्त किये हैं इत्यादिका चितन करना संसार अनुप्रेक्षा है। संसार अनुप्रक्षा समाप्त ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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