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________________ अनुशिष्टि महाधिकार छंद-रथोद्धतायः करोति गुरुभाषितं मुना संश्रये वसति वृद्धसंकुले । मुंचते तरुणलोकसंगति ब्रह्मचर्यममलं स रक्षति ।।११३५॥ छंद-उपजाति - रजो धनोते हृदयं पुनीते तनोति सत्वं विधुनोति कोपम् । मानेन नलं नियं नापति दिवा कोतानीम् ॥११३६॥ मानस स्वल्पसत्वस्य स्त्रोसंसर्गे विनश्यति । जघनस्तनवपत्राणि पश्यतो बहु चल्यते ॥११३७॥ निरस्यति ततो लज्जां संस्तवं कुरुते ततः । ततो भवति निःशंकस्ततो विश्वसिति ध्र यम् ॥११३८।। विश्वासे सति विश्रंभो विभः प्रणये सति । रामासु परमा पुसः प्रणये जायते रतिः ॥११३६।। है ।।११३५।। यह वृद्ध सेवा पापको नष्ट करती है, हृदयको पवित्र बनाती है, शक्तिको बढ़ाती है, क्रोधका नाश करती है, विनयसे युक्त करती है, मानसे रहित करती है। यह वृद्ध सेवा किस अभीष्ट सिद्धिको नहीं करती ? सब ही इष्टको करती है ॥११३६॥ वृद्ध सेवा वर्णन समाप्त । स्त्रियोंके सहवाससे होनेवाले दोषोंका कथन करते हैं जिस पुरुषमें धैर्य सत्त्व अल्प है उस पुरुषका मन स्त्रियोंके संसर्गसे नष्टविकार युक्त होता है । स्त्रियोंके जघनभाग स्तन मुखादिको देखनेसे उसका चित्त अत्यंत चंचल हो जाता है ॥११३७।। मन चंचल होनेपर उसको लज्जा समाप्त होतो है, वह स्त्रीको स्तुति करने लगता है, फिर गुरुजनोंका भय समाप्त होकर निःशंक हो जाता है, तदनंतर नियमसे स्त्री पर विश्वास करता है ॥११३८॥ विश्वास होनेपर परस्परमें मन मिलता है, उससे प्रणय होता है फिर उस पुरुषके स्त्रीमें परम रति होती है ॥११३९।। नारियोंके देखनेसे उनके निकट जाना-माना होनेसे तथा उनके साथ
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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