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________________ सल्लेखनादि अधिकार [ १२३ परीषहेषु विश्वस्तः स्वगणे निर्भयो भवन् । पात्रत किचनकिल्ल्धं सेवते भाषते स्फुटम् ॥४०७॥ बालाः स्वांकोचिता दृष्टा वृद्धचा विह्वल विग्रहाः । अनाथाश्चायिकाः स्नेहं जनयंति गुरोस्तवा ॥४०८।। प्रायिकाः क्षल्लिकाः क्षालाः कारुण्यं कुर्वते यसः । ध्यानविघ्नोऽसमाधिश्च जायते गणिनस्ततः ।।४०६॥ गणिनः प्रेष्यशुश्रुषाभक्तपानादिकल्पने । स्वगणेप्यसमाधानं शिष्यवर्ने प्रमाद्यति ॥४१०॥ समाधिस्थ आचार्य यदि अपने संघ में ही रहता है तो परोषहों के आनेपर स्वगण में विश्वस्त हुआ निर्भय होकर कुछ भी अयोग्य वस्तु को याचना कर सकता है एवं अयोग्य का सेवन तथा अयोग्य वचन स्पष्ट रूप से कह सकता है ।।४०७।। भावार्थ-समाधिस्थ आचार्य को भूख प्यास आदि जब सतायेगी तब संघ से परिचित होने से निर्भयता से आहार आदि मांगने लग जायेंगे, खुद ही खाने लग जायेंगे । इत्यादि दोष स्वस घमें रहने से आचार्य को होते हैं ।। जिन शिष्यों को बाल होने से गोदी के बालकों के समान माना था अर्थात् बालकवत उन्हें सम्हाला था तथा जो वृद्धावस्था के कारण विह्वल हो रहे हैं, जो अनाथ आर्यिकायें हैं वे सब समाधिके अवसरपर गुरुको स्नेह उत्पन्न करते हैं ॥४०८।। दुःखी आर्यिका, क्षुल्लिका, क्षुल्लक आचार्य को करुणा उत्पन्न कर सकते हैं उससे आचार्य के ध्यानमें विघ्न आता है और अशान्ति होती है ।।४०९।। अपने गण में समाधि को यदि करें तो आचार्य का जो कुछ कार्य-प्रष्य-कार्यहेतु अन्यत्र भेजना, सुश्रुषा-सेवा, हाथ पैर का मर्दन आदि, आहार पानादि हैं उनमें शिष्य प्रमाद करे अर्थात् प्रष्य आदि कार्य को ठीक से नहीं करे तो आचार्य को अशान्ति होगी ।।४१०॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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