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मरगाकण्डिका
छंद शालिनी एते दोषाः संति संघे स्वकोये सूरेः साधोस्तादृशस्यापि यस्मात् । तस्मात त्यक्त्या स्वं समाधानकांक्षी धीरः संघं स प्रयात्यन्यदीयं ॥४११।।
छंद- उपजाति भवंति दोषा न गणेऽन्यदीये संतिष्ठमानस्य ममत्वबीजं । गणाधिनाथस्य ममत्वहाने विना निमित्तेन कुतो निवृत्तिः ।।४१२॥
छंद-उपजाति गणे स्वकीयेऽपि गुणानुरागी सत्यस्मदीयं गणमागतोऽयम् । मत्वेति भक्त्या निजया च शक्त्या प्रवर्तते तस्यगणः स्वकृत्ये ॥४१३॥ महीतार्थो गणी प्रार्थ्यः क्षपकस्योपसेदुषः ।
निर्यापकश्चारित्राढयो जायते सर्वयत्नतः ॥४१४॥ ----
इसप्रकार इतने दोष अपने स घमें समाधि करने से आचार्य को प्राप्त होते हैं, तथा आचार्य सदृश अन्य प्रमुख मुनियोंके भी होते हैं, इसलिये समाधिका इच्छुक धीर आचार्य स्वसंघ को छोड़कर दूसरे संघमें जाता है ।।४११॥
दूसरे संघ में रहने वाले आचार्य के ममत्वका बीज अर्थात् कारण नहीं रहता अतः पूर्वोक्त दोष वहांपर नहीं होते, वहां तो ममत्व होन होता जाता है । बिना निमित्त के निवृत्ति कैस होवे । अर्थात् ममत्व का निमित्त निजसंघ वास है और ममत्व के अभाव का निमित्त परसघवास है इनके बिना ममताभाव और ममता का प्रभाव नहीं होता । अथवा निमित्त के बिना निवृत्ति-मोक्ष भो कहां से होवे ।।४१२।।
पराये संघमें आचार्य के प्रविष्ट होनेपर बहांके मुनि विचार करते हैं कि अहो ! स्वगणके होने पर भी हमारे गुणोंमें अनुरागी होकर ये आचार्य हमारे गणमें आये हैं। इस तरह मानकर उस आचार्यके सेवामें मुनिसमुदाय भक्ति और निज शक्तिके अनुसार प्रवृत्त हो जाता है । अतः परगण प्रवेश हो श्रेष्ठ है ।।४१३॥
___समाधिका इच्छुक क्षपक जिनके निकट पहुँचता है वह आचार्य जिसने शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को भलीप्रकार ग्रहण किया है ऐसा होना चाहिये । प्रार्य-प्रार्थना करने योग्य अथवा समाधिके लिये जिसकी अनेक मुनि प्रार्थना करते हैं ऐसा होना चाहिये । चारित्र से सम्पन्न होना चाहिये, इस तरह का निर्यापक आचार्य सर्व प्रयत्नसे प्राप्त करना चाहिये ।।४१४।।