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________________ सल्लेखनादि अधिकार [ १२५ संविग्नस्याघभीतस्य पावरले व्यवस्थितः । अहदागमसारस्य भवत्याराषको यतिः ॥४१५॥ ॥ इति परगणचर्यासूत्रम् ॥ पंच षट् सप्त वा गत्वा, योजनानां शतानि सः । निर्यायकमनुज्ञातं, समाधानाय मार्गति ॥४१६॥ एकद्वित्रीणि चत्वारि, वर्षाणि द्वादशापि च । निर्यापक मनुज्ञातं, स मार्गयति निःश्रमः ॥४१७।। एकरात्रतत्सर्गः, प्रश्नस्वाध्याय पंडितः । सर्वत्रेवाप्रतिबंधः, स्थाकिलः साधुसंयुतः ॥४१८।। जो संसार शरीर और भोगोंसे उदासीन है, पापभीरु है, अहंतदेवके आगमके सारका ज्ञाता है ऐसे आचार्य के पादमूलमें जानेवाला यति आराधक-समाधिका साधक होता है ।।४१५॥ इसप्रकार परगणचर्या मामा पन्द्रहवां सूत्र पूर्ण हुआ। मार्गणा सूत्र समाधि मरण करनेवाला आचार्य पांचसो अथवा छह सौ सातसौ योजन तक भी जाकर निर्यापक आचार्य ( समाधिमरणकी समस्त विधिको जाननेवाले ) को प्राप्त करनेके लिये, एवं मैंने भलीप्रकारसे निर्यापकका अन्वेषण कर लिया है, इसमें कोई त्रुटि नहीं को इसप्रकार अपने समाधान के लिये आचार्यका मार्गण करता है ।।४१६।। मार्गणका काल प्रमाण बतलाते हैं-एक वर्ष अथवा दो, तोन चार वर्ष पर्यंत निर्यापकका अन्वेषण करता है, अथवा बारह वर्ष तक भी करता है, वह आचार्य श्रम रहित हो मार्गण करता हो जाता है ।।४१७।। निर्यापक आचार्य की खोजके लिये गमन करनेवाला आचार्य किसप्रकार गमन करें यह बताते हैं. एक रात्रि प्रतिमायोग धारण करना१ प्रश्न और स्वाध्यायमें कुशलतार विहार पथमें सर्वत्र स्थानादि अप्रतिबद्ध रहना३ स्थंडिल शायो ४ और साधुओं से संयुक्त होना५ ये पांच विशिष्ट कर्तव्य हैं निर्यापक का अन्वेषण करने वाले आचार्यके ॥४१८॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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