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द्विगाधर :यालया
तर बंगाल १२६ ]
सदसौर मरणकण्डिका यद्यपि प्रस्थितो मूले, सरेरालोचनापरः । संपद्यते सरां मूक, स्तथाप्याराधको मतः ॥४१॥ यद्यपि प्रस्थितो मूले, सरेरालोचनापरः ।
विपद्यतेऽन्तरालेऽपि, सयायाराषकोऽस्ति सः ।।४२०॥
विशेषार्थ-निर्यापकको खोज करने के लिये प्रस्थान करनेवाले आचार्य में जो विशेषतायें हैं उन्हें यहां कारिका में बताया है, पांच विशेषतायें हैं। इनका स्वरूप भगवती आराधना टोकानुसार बताते हैं-एक रात्रि प्रतिमा योग-तोन उपवास करके चौथो रातमें ग्राम नगरादिके बाहर श्मशान वनादि स्थानपर पूर्व या उत्तरमें मुख कर नासाग्र दृष्टि एवं शरीर स्थिर करके सूर्योदय होनेतक ध्यानस्थ रहना एक रात्रि प्रतिमायोग कहलाता है । प्रश्नकुशल-विहार करते हुए मार्ग में गृहस्थ, आर्यिका, वृद्ध आदि को पूछकर अर्थात् रास्ते आदिके विषयमें पूछकर कार्य करनेमें कुशलता होना, इसतरह की कुशलता नहीं होगी तो इष्ट नामादि के प्रति गमन करने में परेशानी होगी। स्वाध्याय कुशल-स्वाध्याय करके आहारार्थ ग्रामादिमें गमन करना स्वाध्याय कुशलता है । सर्वत्र अप्रतिबद्धता-विहार पथमें किसो विशिष्ट स्थानमें, विशिष्ट श्राधकमें यतियोंमें स्नेह युक्त नहीं होना, सर्वत्र अप्रतिबद्धता कहलाती है, यदि बीच में किसीके प्रति मोह होगा तो आगे विहार नहीं कर पायेगा अतः सर्वत्र अप्रतिबद्धता चाहिये । स्थंडिलशायी-शरीरकी क्रिया-मल त्याग आदिके लिये प्रासुक स्थान देखना स्थंडिलशायित्व गुण है । साधु संयुत--बिहार करते समय सहायता करनेवाले योग्य मुनिके साथ विहार करना । ये पांच विशेषतायें निर्यापकके अन्वेषणमें निकलनेवाले आचार्यकी हैं।
गुरुके निकट मैं आलोचना करूगा ऐसो भावनासे कोई साधु विहार कर रहा है और देव वश मार्ग में रोगादि से मूक अवस्था को प्राप्त होता है तो भी वह आराधक है ऐसा कहते हैं--मैं निर्यापक आचार्य के समक्ष जाकर अपने व्रत-संबंधी सर्व ही दोष कहूँगा, अपने दोषोंकी अवश्य आलोचना करूगा इसप्रकार जिसके हृदय में दृढ़ भावना है और वह रास्ते में ही किसी कारण वश मूकावस्था को प्राप्त होवे तो भी अतिशय रूपसे आराधक ही माना जाता है ।।४१९।।
___तथा उक्त साधु गुरुके निकट शुद्ध आलोचना करने की इच्छा लेकर विहार करता है और बीच में उसकी मृत्यु हो जाती है तो भी वह चार प्रकार की आराधना करनेवाला-समाधिमरण करने वाला ही माना जाता है ।।४२०।।