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मल्लेखनादि अधिकार
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आलोचना प्रवृत्तस्य, गच्छतः सरि सन्निधि । यद्यम्यस्त्यमुखः सूरि, स्तथाप्याराधकोऽस्ति सः ॥४२१॥ पालोचना प्रवत्सस्य, गच्छतः सूरि सन्निधि । यद्यपि म्रियतेसरि, स्तथाप्याराधकोऽस्ति सः ॥४२२॥ संवेगोगसंपन्नः, शुद्धयं गच्छत्यसो यतः । मनःशल्यं निराक, भवत्याराधकस्ततः ॥४२३॥
- - - - भावार्थ-मन, वचन और काय के द्वारा रत्नश्रय में जो दोष लगे हैं उन सबकी आलोचना गुरु के निकट करूगा ऐसी भावना लेकर जा रहे साधु के यदि रास्ते में ही मकता आ जाय अथवा मरण ही हो जाय तो भी उसकी समाधि पूर्वक मृत्यु मानी जाती है, क्योंकि उसके परिणाम निर्मल हैं।
आलोचना करने का संकल्प करके जो गुरु के पास जाने के लिये चला है । यदि आचार्य बोलने में असमर्थ हों तो भी वह आराधक है ।।४२१।।
जो आलोचना करने के लिये गुरु के निकट जा रहा है और जिस गुरु के निकट जाना था वे प्राचार्य मर जाँय तो भी वह आराधक है ।।४२२।।
आलोचना किये बिना मृत्यु को प्राप्त हुआ मुनि आराधक कैसे माना जाता है इस प्रश्न का उत्तर देते हैं जिसकारण रत्नत्रय की शुद्धि के लिये यह साधु गमन करता है तथा संवेग और उद्वेग संपन्न है अर्थात् संसार भीरुता के भाव और शरीर सुखादि तृष्णावर्द्धक भाव जिसके नहीं हैं, जो मन के शल्य को निराकरण करने के लिये गमन करता है अर्थात् दोषों की आलोचना करने में किसी प्रकार मायादि शल्य नहीं रखूगा ऐसी सुविशुद्ध भावना बाला उक्त साधु है उस कारण वह बीच में मृत्यु को प्राप्त होने पर भी आराषक माना जाता है ।।४२३।।।
भावार्थ-~-अपराध करके भी जो आलोचना नहीं करता वह मुनि मायावी है, मायाशल्य होने से रत्नत्रय में निर्मलता नहीं होती ऐसा विचार कर शल्य का उद्धार करने का जिसने निश्चय किया है, जिसके मन में संसार से भय उत्पन्न हुआ है, शरीर अपवित्र निःसार और दुःखदायक है, इन्द्रिय सुख तृष्णाग्नि बढ़ाता है ऐसा विचार कर उम सुख से जो निवृत्त हुआ है, रत्नत्रय में तीव्र रुचि वाला है ऐसा मुनि निज अपराध