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________________ १२२ ] मरकण्डिकर छंद उपजाति वाक्याक्षमायामसमाधिकारी सूरेः समं तंः कलहो दुरन्तः । दोषास्ततो दुःखविषादखेदाः भवति सर्वेष्वनिवारणीयाः ॥ ४०४ ।। संत जगनाति गणेन साकं कलहाविदशेषं कुर्वत्सु बालादिषु दुर्धरेषु । गणाधिपस्य स्वगणप्रवृत्ते मंमत्वदोषादसमाधिरस्ति ॥४०५॥ छंद उपेन्द्रवज्रा परीष हैर्घोरतः स्वसंघ निरीक्ष्यमाणस्य निपीड्यमानं । गणे स्वकीये परमोsसमाधिः प्रवर्तते संघपतेरवार्यः || ४०६ ॥ समाधि के इच्छुक आचार्य स्व संघ में रहते हैं, वे कभी शिक्षा के वाक्य कह देवे और उसको कोई सहन न करे तो उन उद्दण्ड शिष्यों के साथ आचार्य का असमाधि करनेवाला महान कलह झगड़ा हो जावेगा, कलह से दुःख, विषाद, खेद ये दोष सबमें अनिवार्य रूप से होने लगते हैं ||४०४|| भावार्थ- जब शिष्य आज्ञा नहीं मानेंगे तो आचार्य शिष्य को कठोर वचन कहेंगे, कठोर वचन सुनकर, क्षुल्लक मुनि स्थविर आदि कलह करते हैं कि ये आचार्य हमेशा हो हमें डाटते हैं, आज्ञा देते हैं उपदेश देते रहते हैं, हमें क्या जानकारी नहीं है ? इत्यादि । सो ऐसे कलहकारी वचन से आचार्य के मन में दुःख, खेद आदि प्रादुर्भूत होवेंगे अथवा ये आचार्य हमें कष्ट देते हैं इत्यादि सोचकर शिष्य समुदाय दुःख, विषाद खेद करने लग जाते हैं । संघ के साथ परस्पर में कलह विवाद आदि करते हुए बाल वृद्ध आदि धीट मुनियों को देखकर अपने गण में रहने वाले आचार्य के ममत्वरूप दोष से असमाधिअशान्ति होतो है । अर्थात् संघ में कोई बाल आदि मुनि आपस में झगड़ा करते देखकर स्नेह वश आचार्य अशान्त हो जाते हैं अतः आचार्य को अन्तकाल में स्वसंध में नहीं रहना चाहिये ||४०५ ।। अथवा घोर परीषहों द्वारा अपने संघ को पीड़ित देखकर अपने संघ में रहने वाले आचार्य के अत्यन्त अशांति होना अनिवार्य है | १४०६ ॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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