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________________ सल्लेखनादि अधिकार छंद उपजाति: परापवादोद्यतयो जयंतः शंक्ष्याः खरा युद्धपरानधीनाः । आज्ञाक्षत मंशु गणे स्वकीये कुर्वन्ति सूरेरसमाधिहेतुम् ॥४०१ ॥ छंद इन्द्रवज्रा व्यापारहीनस्य ममत्वहाने: संतिष्ठमानस्य गणेऽन्यदीये । नाज्ञाविघाते विहितेऽपि सूरे रेतंरशेषंरसमाधिरस्ति ॥ ४०२ ॥ छंद शालिनी [ १२१ बालवृद्धाकान्दुष्टचेष्टान् दृष्ट्यासूरि निष्ठुरं वक्ति वाक्यम् । किचिद्रागद्वेषमोहादियुक्तास्ते वा ब्रूयुः संस्तवप्राप्तधायः ॥ ४०३ ॥ जाते हैं, इसप्रकार के शिष्य अपने संघ में आचार्य की आज्ञा का शीघ्र ही भंग कर डालते हैं जो आज्ञा भंग आचार्य के असमाधि का कारण बन जाता है अर्थात् आशा नहीं मानने से आचार्य के परिणाम अशान्त होते हैं उससे उनको समाधि बिगड़ती है ।।४०१ ।। जब समाधि के इच्छुक आचार्य अन्य संघमें रहते हैं तब जिनका ममत्व होन हुआ, जो संघ का कुछ कार्य नहीं करते हैं ऐसे उन आचार्य के उपर्युक्त उद्दंड मुनियों द्वारा आज्ञा भंग कर दिये जाने पर भी असमाधि नहीं होती, अर्थात् पर संघ में रहते हैं वहां तो दूसरे आचार्य की आज्ञा का भंग कोई उदंड शिष्य कर लेवे तो भी समाधि के इच्छुक आचार्य कोप को प्राप्त नहीं होते उनकी शान्ति नष्ट नहीं होती । अतः समाधि के वक्त आचार्यं पराये संघ में जाते हैं ||४०२ ॥ परुष दोष -- दुष्ट चेष्टावाले बाल वृद्ध शैक्ष मुनियों को देखकर आचार्य उन शिष्यों के प्रति निष्ठुर बाक्य कहते हैं, अथवा अपनी प्रसिद्धि के कारण घोट हुए तथा रागद्वेष मोहादि से युक्त हुए वे मुनि आचार्यदेवके प्रति कठोर वाक्य बोलने लग जाते हैं ।।४०३ ।। इसप्रकार परुष वचन दोष उत्पन्न होता है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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