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________________ मरण कण्डिका छंद वंशस्थ:बुधैन शीलः रहिता नितम्बिनी, तपस्विदानः रहिता गृहस्थता । गुरूपदेशः रहिता तपस्विता, प्रशस्यते नित्यसुखप्रदायिनी ।।३६७।। ___ छंद वंशस्थ:मनोषितं वस्तु समस्तमंगिनां, सुरखुमाणामिव यच्छतां सदा । गुणगुरूणां विरहो गरीयसा, न शक्यते सोडुमपास्तरेफसाम् ॥३६॥ इति अनुशिष्टिसूत्रम् । प्रापृच्छयेति गणं सर्व चतुरंगमहोखमम् । करोस्याराधनाकांक्षी गंतु परगणं प्रति ॥३६।। प्राज्ञाकोपो गणेशस्य पुरुषः फलहोऽसुखं । निर्भय स्नेह कारुण्य ध्यान विघ्ना समाधयः ।।४००।। शीलों से रहित स्त्री, साधुजनों को दान दिये बिना गृहस्थपना तथा नित्य सुखप्रद गुरु के उपदेश बिना तपश्चरण बुद्धिमानों द्वारा प्रशंसनीय नहीं माना जाता है ॥३६७) कल्पवृक्षों के समान जीवों को समस्त मनोवांछित वस्तु को देनेवाले गुणों से गुरु ऐसे महान् पाप रहित गुरुओं का विरह सहन करना शक्य नहीं है ॥३९८|| इसप्रकार संपूर्ण संघ को पूछकर चार आराधना रूप महान उद्यम को आचार्य करते हैं जो कि आराधनाकांक्षी हैं और अन्य संघ के प्रति गमन करने में उत्सुक हैं ॥३६६॥ यदि अपने संघ में रहकर ही समाधि करें तो इतने दोष उपस्थित होते हैंआचार्य के आज्ञा का कोप, कठोर वचन, कलह, दुःख, निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यान विघ्न और असमाधि ।।४००॥ इन सब दोषों को आगे क्रमसे बताते हैं। आज्ञाभंग दोष-- संघ में अनेक मुनि हैं उनमें स्थविर मुनि कभी पर का अपवाद करने में उद्यत हो जाते हैं कोई शिक्षाशील मुनि कठोर परिणामी कलह में तत्पर स्वच्छन्द हो।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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