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सल्लेखनादि अधिकार
[ ११९ अनन्यतापिभिः सर्वे, गुणशीलपयोधिभिः । होना बहुश्रुतर्देशाः, सान्धकारा भवंति ते ॥३६२॥ सर्वज्ञरिवयेई, जन्यन्ते तत्त्वनिश्चयाः । देहनाशे प्रवासे वा, तेषामंधा भवति ते ॥३६३॥ वाक्येराप्यायिता लोका, यर्मेधा इव पारिभिः । येभ्यस्ते निर्गता वृद्धास्ते देशाः संति खंडिताः ॥३६४।। बायकानामशेषस्य सूरिणामुपकारिणाम् । समानसुखदुःखानां, वियोगो दुःसहश्चिरं ॥३६५।।
द वंशस्पवित्रविद्योद्यतवानपंडितस्तनुभृतां तापविषादनोदिभिः ।
गणाधिपैर्भाति विना न मेदिनी, निरस्तपंकः सरसीव वारिभिः।।३९६॥
अन्य को संताप नहीं देनेवाले सर्व गुण और शीलों के सागर, शास्त्रों में पारंगत ऐसे आपके समाधिस्थ होनेपर उक्त गुणों से विशिष्ट जनों से ये सर्व देश रहित हो जायेंगे, अधिकार मय हो जायेंगे ।।३९२।।
सर्वज्ञ के समान ज्ञानवृद्ध आपके द्वारा जो लोगों को तत्त्वों का निश्चय कराया गया था अथवा लोग तत्त्वनिश्चय को प्राप्त हुए थे, अब आपके देह का नाश हो जाने पर अथवा इस संघ और देश को छोड़कर अन्यत्र चले जानेपर संघ और देश तत्त्वनिश्चय विहीन अंध जैसा हो जायेगा ।। ३९३॥
धर्म वाक्यों द्वारा हम लोग संतोष से परिपूर्ण हए थे जसे कि. जल द्वारा मेघ पूर्ण रहा करते हैं । जिन देशों से जलपूर्ण मेघ निकल जाते हैं वे देश घान्य विहीन खंडित-जन शून्य हो जाते हैं ऐसे ही आप वृद्ध पुरुषों के निकल जानेपर ये देश खंडित धर्म शून्य हो जायेंगे ।।३६४॥
अहो ! बड़ा कष्ट है कि सम्पूर्ण ज्ञानादि गुणों के प्रदाता, उपकार करने थाले, सुख और दुखों में जो समान भाव रखते हैं ऐसे आचार्यों का वियोग अत्यन्त दुःसह है, चिरकाल तक दुःसह है ।।३९५।।
जीवों को पवित्र विद्यारूप श्रेष्ठ दान देने में पंहित, ताप और विषाद को दूर करने वाले ऐसे आचार्य देव के बिना यह पृथ्वी शोभित नहीं होती, जैसे कीचड़ रहित जल के बिना तालाब शोभता नहीं ।।३६६।।