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मरणकण्डिका प्रयं नोऽनुग्रहोऽपूर्यो, यत्स्थांगमिव पालिताः । सारणावारणावेशा, लम्यन्ते पुण्यभागिभिः ॥३८८।। क्षमयामो वयं तन् यद् रागाज्ञानप्रमावतः । प्रादेशं वक्तामाजा भवतां प्रतिकलिता ॥३६॥ सन्धसिद्धिपथा जाताः, सचित्तश्रोत्रचक्षुषः । युष्मतियोगतो भूयो, भविष्यामस्तथाषिधाः ॥३६०।। सर्वजीवहिते बजे, सर्वलोक नायके । प्रोषिते वा विपन्ने वा, देशाः शून्या भवंति ते ॥६॥
तुष्टायमान शिष्य समुदाय कह रहा है कि अहो ! हम लोगों के ऊपर यह अपूर्व अनुग्रह है जो अपने शरीर के समान हमारा पालन किया था, 'सारणा-गुण में प्रेरणा' 'वारणा-ऐसा मत करो इस तरह समझाना', 'आदेश-यह तुम्हारा कर्तव्य है। इत्यादि गुरु की बातें पुण्यशालियों को हो सुनने को मिलती हैं ।।३८८।।
हे आचार्य देव ! हम सभी आपसे क्षमा मांगते हैं कि जो हमने पहले राग, अज्ञान एवं प्रमाद से आदेश को देनेवाले आपको आज्ञा का पालन नहीं किया हो, प्रतिकुल आचरण किया हो ॥३८९।।
हे प्रभो ! आपने हमें लब्ध सिद्धि पथ वाले कर दिया है अर्थात् मोक्ष का मार्ग प्राप्त कराया है, आपने हमें हृदय श्रोत्र और चक्षु दिये हैं अर्थात् हिताहित विवेक देकर हृदययुक्त किया, शास्त्र को पढ़ाया जिससे कर्ण युक्त हुए जो कर्ण गुरु के उपदेश को नहीं सुनते वे कर्ण कर्ण ही नहीं हैं अथवा उस व्यक्ति का कर्ण पाना व्यर्थ है। आपने हमें पागम चक्षु बनाया है, हम तो अज्ञानी थे पहले हृदय शून्य, कर्ण शून्य और चक्षु विहीन थे क्योंकि इन हृदयादि से होने वाले धर्म लाभ को नहीं जानते थे आप तो समाधि के सम्मुख हैं आपके वियोग से पुनः दिग् भ्रमित होकर वैसे ही हो जायेंगे ॥३६॥
भो भगवन् ! संपूर्ण जीवों के हित की वृद्धि करने वाले, संपूर्ण लोकों के एक नायक स्वरूप आपके समाधि के हेतु उपोषित हो जानेपर अथवा आपका समाधिमरण हो जानेपर सर्वदेश शून्य हो जायेंगे ।।३६१॥