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सल्लेखनादि अधिकार स्वरूपोप्यन्यगुणो धन्यं, तलविदुरियोस्के । विवद्धते समासाद्य, परदोषं न वक्ति सः ॥३८४।। ग्राह्यस्तथोपरेशोऽयं सर्वोयुष्माकमंजसा । यथा गुणाकृता कोति. लॊके भ्राम्यति निर्मला ।। ३५ अनन्यतापकोऽखण्डब्रह्मचर्यो बहुश्रुतः । शांतो रढचरित्रोऽय, मेषा धन्यस्य घोषणा ॥३८६।। इदं नो मंगलं बाढमेव मुक्त्वा गणोप्यसौ । तोष्यमाणो गुणः सूरे, रानवाश्रु विमुचति ॥३८७।।
सज्जन पुरुष अन्य का अल्पगुण हो तो उसको धन्य करता है अर्थात् जल में तेल का एक बिन्दु भी जैसे फैल जाता है वैसे सज्जन को प्राप्त पर का एक गुण भो वृद्धिंगत होता है-लोक प्रसिद्धि में आ जाता है, ऐसा वह सज्जन पराये दोष को कभी नहीं कहता है ।।३८४।।
आचार्य परमेष्ठी अपने संघस्थ साधुओं को कह रहे हैं कि तुम सभी को भली प्रकार से यह उपयुक्त सर्व उपदेश उस तरह ग्रहण करना चाहिये जिस तरह कि गुणों के द्वारा की गयी निर्मल कोर्ति लोक में विस्तृत हो ॥३८५।।
___ उस कीति का फैलाव ऐसा होना चाहिये कि अहो ! इस संघ के साधुजन धन्य हैं, धन्य हैं, ये किसी को संताप नहीं देते, इनका अखण्ड ब्रह्मचर्य है, ये बड़े ही ज्ञानी पुरुष हैं, ये कभी कोप नहीं करते, चारित्र में दृढ़ हैं ।।३८६।।
__ इसप्रकार यहाँ तक विस्तार पूर्वक समाधि के इच्छुक आत्रार्य ने संघस्थ साधु समाज को उपदेश दिया इस गुरु के उपदेश को सुनकर सम्पूर्ण उपदेश को जिन्होंने भलीभांति स्वीकृत किया है ऐसे में गुरु के प्रति एवं उनके उपदेश के प्रति जो कर्तव्य करते हैं उसे बतलाते हैं-यह सर्व ही उपदेश हम लोगों के लिये मंगलभूत हैं बहुत ग्राह्य हैं श्रेष्ठ हैं इत्यादि कहकर सर्व संघ आचार्य के गुणों से संतुष्ट होता हुआ आनंद के अथ छोड़ता है अर्थात् गुरु के इसतरह स्वपरोपकारक. अत्यन्त शुद्ध रत्नत्रय के वर्द्धन करने वाले वचनों को सुनकर सर्वसंघ के साधुओं के नेत्रों से हर्ष के अश्र निकल पड़ते हैं ॥३८७॥