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मरणकण्डिका
त्यजतासंयम अंधा, मुक्तिलक्ष्मी जिघृक्षवः । सा दूरीक्रियते तेन, व्याधिनेव सुखासिका ॥३७६।। मा ग्रहीषः परीवाद, स्वसंघपरसंघयोः । संसारो वर्धतेऽनेन, सलिलेनेय पावपः ॥३८०॥ शोकषासुखायासबरदौर्भाग्य भीतयः । विशिष्टानिष्टया पुंसां, जन्यन्ते परनिवया ॥३१॥ उत्थापयिषुरात्मानं, परनिदा विधाय यः । अपरेणौषधे पीते, स नीरोगत्वमिच्छति ॥३८२॥ योऽन्यस्य दोषमाकर्ण्य, चित्ते जिह्रति सज्जनः । परापवादतो भीतः, स्वदोषमिव रक्षति ॥३३॥
भावार्थ-पंचपरमेष्ठोके आसादना करनेवाला मिथ्यादृष्टि हो जाता है और जो मिथ्यादृष्टि है वह अनंत संसारमें भ्रमण करता रहता है ।
मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करने के इच्छुक पुरुषों ! तुम मन वचन काय से असंयम का त्याग करो । क्योंकि असंयम से मुक्ति दूर को जाती है, जैसे कि व्याधि से सुख पूर्वक बैठना नष्ट हो जाता है ।।३७६।।
भो ऋषिगण ! आप कभी भी स्वसंध तथा परसंघ का अपवाद मत करना। अपवाद करने से संसार भ्रमण बढ़ता है, जैसे कि जल से वृक्ष बढ़ता है ॥३८॥
विशिष्ट निष्ठा से की गयी परनिंदा से शोक, द्वष, दुःख, आयास, बैर, दर्भाग्य और भीति आदि उत्पन्न होते हैं ।।३८॥
जो पुरुष परनिंदा करके अपना उत्थान करना चाहता है वह पर के द्वारा औषधिपान कर निरोग होना चाहता है । अर्थात् जैसे पर के मौषधि पीने से खुद निरोग नहीं हो सकता वैसे ही पर की निन्दा करने से खुदका उत्थान हो नहीं सकता ॥३२॥
सज्जन पुरुष अन्य के दोष को सुनकर मन में लज्जित होता है, वह पर के अपवाद से भयभीत रहता है जैसे अपने दोष बाहर प्रगट न हो इस बात की रक्षा करता ' है वैसे हो पर के दोष की रक्षा करता है-पर के दोष न कहता है, न सुनता है ॥३८३।।