________________
[ ११५
सल्लेखनादि अधिकार गुणानां नाशनं वाचा, क्रियमाणं निवेदनम् । प्रकाशनं पुनस्तेषां, चेष्टयास्ति निवेवनम् ॥३७४॥ प्रजरुपन्तो गुणान वाण्या, जल्पन्तश्चेष्टया पुनः । भवन्ति पुरुषाः पुंसां, गुणिनामुपरि स्फुटम् ।।३७५।। निगुणो गुणिनां मध्ये, अवाणः स्वगुणं नरः । सगुणोप्यस्ति वाक्येन, निर्गुणानामिव ब्र बन ॥३७६।। सगुणो गुणिनां मध्ये, शोभते चरितगुणं । अवारणो वचनैः स्वस्य, निगुणानामियागुणः ॥३७७।। यूयमासादनां कृध्वं, मा जातु परमेष्ठिना । दुरन्ता संसृतिर्जन्तो, र्जायते कुर्वतो हि तां !
करने से कोई गुणवान नहीं होता गुणों का अनुष्ठान करने से गुणवान होता है ॥३७४॥
जो गणों को वाणी से नहीं बोलता, किन्तु क्रिया से बोलता है अर्थात गुणवान का कार्य करता है ऐसे पुरुष गुणी पुरुषों के भी ऊपर हो जाते हैं अर्थात गुणवान में श्रेष्ठ माने जाते हैं ।।३७५।।
गुणीजनों के मध्य में अपने गुण को कहनेवाला पुरुष निर्गुण बन जाता है । गुणवान पुरुष है और वह निर्गुणी के समान वचन से गुण को कहता फिरता है वह सगुण होकर भी निर्गुण जैसा है ॥३७६।।
गणीजनों के मध्य में गुण को आचरण द्वारा प्रगट करता हुआ गुणी साधु पुरुष शोभा को प्राप्त होता है, निर्गुणी पुरुषों के समान जो अपने गुण कहता है वह गुण रहित माना जाता है ।।३७७१।
है यतिजनो ! आप लोग कभी भी पंच-परमेष्ठियोंकी आसादना नहीं करना । क्योंकि उस आसादना को करनेवाला जीव दुरन्त संसारी बन जाता है, अर्थात उसके संसार का जल्दी अन्त-किनारा नहीं आ पाता ॥३७८।।