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मरणकण्डिका
अनुक्तोऽपि गुणो लोके विद्यमानः प्रकाशते । प्रकटीक्रियते केन विवस्थानुदितो जनः ॥३७०॥ कष्यमाना गुणा वाचा, नासंतः संति वेहिनः । षण्डका न हि जायन्ते, योषा वाक्यशतैरपि ॥३७१।। विद्यमानं पुणं स्वस्य, कीर्त्यमानं निशम्य यः । महारमा लज्जते चित्ते, भाषते स कचं स्वयं ॥३७२॥ निगुणोपि सतां मध्ये, सगुणोऽस्ति स्वमस्तुवन् । न श्लाघते यदात्मानं, गुणस्तस्य स एव हि ॥३७३॥
अपने गुण नहीं कहने पर भी विद्यमान रहते हैं । देखो ! सूर्य उदित हआ है ऐसा किन लोगों द्वारा प्रकट किया जाता है ? अर्थात् जैसे सूर्य उदित हुआ ऐसा नहीं कहने पर भी वह प्रसिद्ध होता है वैसे ही अपने गुण नहीं कहनेपर भी वे स्वतः प्रसिद्धि पाते हैं ।।३७०॥
जो गुण असत् हैं अपनेमें नहीं हैं उनको वचन द्वारा कहने मात्र से कोई सत्रूप नहीं हो जाते हैं, कोई नपुंसक है तो उसको सैकड़ों वचनों द्वारा यह स्त्री है यह स्त्री है ऐसा कहने से वह स्त्री नहीं बन जाता, वह तो नपुंसक का नपुसक ही रहता है ।।३७१॥
___ जो महान होता है वह अपने मौजूद वास्तविक गुण को कोई कह देवे तो मन में लज्जित होता है ऐसा व्यक्ति स्वयं अपने मुख से उसको कैसे कह सकता है ? नहीं कह सकता ॥३७२।।
यदि कोई पुरुष गुणयान नहीं है निर्गुण है किन्तु सज्जनों के मध्य में अपनी स्तुति-प्रशंसा नहीं करता तो वह गुणवान माना जाता है । उसका तो यही गुण है कि अपनी स्तुति नहीं करना ।।३७३।।
अपने गुणों को अपने वचन से कहना गुणों का नाश करना है, और गुणों को अपने में धारण करना उनका प्रकाशन है । मतलब यह है कि व्यर्थ अपनी प्रशंसा