________________
सल्लेखनादि अधिकार
गुणवोषौ प्रजायेते, संसर्गवशतो यतः । संसर्गः पावनः कार्यो, विमुध्यापावनं ततः ॥३६॥ वाच्यो गणस्थितः पथ्यमनभीष्टमपि स्फुटम् । तत्तस्य कटकं पाके, भैषज्यामिव सौख्यवम् ।।३६६॥ स्वान्तानिष्टमपि ग्राह्य पथ्यं बुद्धिमता वचः । हवतः किं न बालस्य, दीयमानं घृतं हितं ।।३६७।।
॥ इति दुर्जन संग वर्जनम् ।। मा छेवयन्तु स्वयशो, मा कार्य स्वं प्रशंसनम् । लघवः स्वं प्रशंसन्तो, जायन्ते हि तृणावपि ॥३६८।। स्वस्तपन गुणा माति, म
सोधुमि । स शोषः परमस्तेषां, कोपः संयमिनामिव ॥३६६।। गुण और दोष संसर्गके निमित्त से आया करते हैं इसलिये अपवित्र-दुष्टका संसर्ग त्याग करके पवित्र-सज्जनका संसर्ग करना चाहिये ।।३६५।।
संघस्थ साधुओंको संघमें रहकर हमेशा पथ्यकारी वचन बोलना चाहिये भले ही वह इष्ट नहीं लगता हो क्योंकि जैसे कड़वो औषधि आगामीकालमें सुखप्रद होती है वैसे ही हित और पथ्यभूत वचन तत्काल कडुवा लगने पर भी उसका विपाक मधुर सुखदायक होता है । अतः साधुजन परस्परमें वचन व्यवहार करें वह आत्महितकारी करें ॥३६६॥
जो वचन मन को भले ही अच्छा नहीं लगता हो किन्तु पथ्यकारी हो उसको बुद्धिमान को अवश्य ग्रहण करना चाहिये, क्या बालक को जबरदस्ती घी देनेपर हितकारी नहीं होता ? अवश्य होता है ।।३६७॥
हे साधुजन ! तुम अपने यश को छिन्न भिन्न नहीं करना, अपनी प्रशंसा भत करना । क्योंकि जो व्यक्ति अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता है वह तृण से भी अति लघु-हीन हो जाता है ।।३६८।।
जैसे मदिरा का उन्माद कांजी के पीने से नष्ट हो जाता है वैसे ही अपनी प्रशंसा करने से गुण नष्ट हो जाते हैं। जिस तरह संयमी के क्रोध आना बड़ा दोष है उसोतरह अपनी प्रशंसा करना बड़ा दोष है ॥३६९।।