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मरएकण्डिका कातरोऽप्रियधर्मापि, व्यक्तं संविग्नमध्यगः । • भौत्रपा भावनामान, श्चारित्रे यतते यतिः ॥३६॥ संविग्नः परमां कोटि, साधुः संविग्नमध्यगः । गंधयुक्तिरिवायाति, सुरभिद्रध्यकल्पिताम् ॥३६२॥ एकोऽपि संयतो योगी, वरं पार्यस्थलक्षतः । संगमेन तदोयेन, चतुरंग विधर्धते ॥३६३॥ वरं संयततः प्राप्ता, निवा संयमसाधनी ।
न त्व संयततः पूजा, शीलसंयमनाशिनी ।।३६४।।
कोई साधु धर्ममें रुचि नहीं करता किन्तु संयमीके मध्य में रहने पर संयममें प्रयत्नशील होता है ऐसा कहते हैं
संयमी जनोंके-वैराग्यशील पुरुषोंके मध्य में रहा हुआ कातर एवं धर्मको अप्रिय माननेवाला भी यति भय, लज्जा भावना द्वारा चारित्र में व्यक्त रूपसे प्रयत्नशील होता है ।।३६१॥
भावार्थ-किसी मुनिके रत्नत्रयमें रुचि नहीं रहती, बाहर ख्याति आदिमें रुचि रहती है किन्तु यह मुनि भी वैराग्यशील संयमी साधुके साथ रहने पर विचार करता है कि अहो ! यह मूनि धन्य है अपने चारित्रमें कितना उद्यमशील है इत्यादि इसतरह का विचार आनेसे तथा अपने निम्न आचरणकी लज्जा एवं भय आनेसे स्वयं चारित्रमें दृढ़ हो जाता है अत: मुनि को चाहिये कि वह वैराग्यशील उत्तम चारित्र वाले मुनिकी संगति करे ।
संवेग संपन्न मुनियोंके मध्य में निवास करनेवाला साधु उत्कृष्ट परम कोटिके वैराग्यको प्राप्त कर लेता है। जैसे सुगंधित द्रव्यके निकट रखी हुई वस्तु सुगंधीको प्राप्त होती है-सुगंधित बन जाती है ।।३६२।।
लाखों पार्श्वस्थ मनियोंको अपेक्षा एक ही संयमी मुनि श्रेष्ठ माना गया है। उस एक के संगति से चतुरंग-सम्यक्त्व आदि चार आराधना वृद्धिको प्राप्त होती है
संयमी जनसे संयमको साधनेवाली निन्दा प्राप्त होना श्रेष्ठ है किन्तु असंयमी. जनसे शील-संयमका नाश करनेवाली प्रशंसा श्रेष्ठ नहीं है ॥३६४।।