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________________ [ १११ सल्लेखनादि अधिकार असंयतेन चारित्रं, संयतस्यापि लुप्यते । संगतेन समृद्धस्य, सर्वस्वमिव दस्युना ॥३५७।। दुष्टानां रमते मध्ये, दुष्टसंगेन शासितः । विदूरीकृत वैराग्यो, न शिष्टानां कदाचन ।।३५८॥ दुष्टोऽपि मुचते दोषं, स्वकीयं शिष्टसंगतः । कि मेरुमाश्रितः काको, न धत्ते कनकच्छविम् ॥३५॥ पूजां सज्जनसंगेन, दुर्जनोपि प्रपद्यते । देवशेषाविगंधापि, क्रियते किं न मस्तके ॥३६०।। • असंयत पुरुष द्वारा संयमीजन का भी चारित्र लुप्त हो जाता है, जैसे कि । समृद्धिशाली पुरुष का सर्वस्व-धन संपर्क में आये हुए चोर द्वारा लूट लिया जाता है ॥३५७॥ दुष्ट संगति से वासित हुआ व्यक्ति अब दुष्टों को गोष्ठी में रमता है जिसने कि अपने वैराग्य भाव को दूर कर दिया है-छोड़ दिया है । दुष्ट के संगति में आया पुरुष शिष्टों की गोष्ठी में कभी नहीं रमता ।।३५८।। भावार्थ-दुर्जन की संगति से दुष्ट बना हुआ मनुष्य सज्जन मनुष्योंमें रहना-उनका संगति करना पसंद नहीं करता है, वह तो वैराग्य को छोड़कर दुर्जनों के मध्यमें बड़े आनंदसे रहने लग जाता है। __ यहां तक दुर्जनको संगति में आनेसे होनेवाले दोष बतलाये, अब आगे सज्जनका आश्रय लेनेसे उनको संगति करनेसे गुण आते हैं ऐसा बताते हैं जिसने सज्जनकी संगति की है ऐसा दुष्ट पुरुष भी अपने दोषको छोड़ देता है, क्या मेरु का आश्रय लेनेवाला काक कनककान्तिको नहीं प्राप्त करता ? अवश्य करता है ॥३५९।। सज्जनके संगसे दुर्जन भी पूजा-आदरको प्राप्त कर लेता है। देवके शेषा स्वरूप माला गंधरहित होनेपर भी क्या मस्तकपर धारण नहीं की जाती ? अवश्य की जाती है ।।३६०॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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