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________________ ५५२ काडमा श्रोत्रियो ब्राह्मणो भूत्वा कृस्वा मानेन पातकम् । सूकरो मंडलः पाणी शृगालो जायते बकः ।।१८६८।। निवां दारिद्रयमश्वयं पूजामन्यवयं स्तुतिम् । स्त्रैणं पोस्नं चिरं जीवः षंढत्वं प्रतिपद्यते ॥१८६६॥ निर्दोषमपि निःपुण्यं सदोष मन्यते जनः । सदोषमपि पुण्याढच निर्दोषं पुरुषः पुनः ॥१९००॥ किन्तु उस दिनसे अत्यंत उदास रहने लगा। राजाको हारके ठीक हो जानेसे बड़ी प्रसन्नता हुई थी अतः उसने उस सुनार पुत्र को बुलाकर पूछा कि इस हारको कोई बना नहीं पा रहा था तुमने कैसे बनाया ? तब उसने एकांतमें अपना पूर्वभवसे अब तक सारा वृत्तांत सुनाया 1 राजा प्रजापाल पाश्चर्यचकित हो गया, उसे इस विचित्र भव परम्परा को देखकर वैराग्य हुआ । सुनार पुत्र तो पहलेसे ही उदास हो चुका था, उसका मन ग्लानिसे भरा था कि अहो ! यह कैसा परिवर्तनशील संसार है ! जहां स्वयंकी पत्नी से पतिका जन्म पुत्र रूपसे होता है । धिक ! धिक ! मोहतम को ! इसप्रकार विचार कर उसने अपना कल्याण किया। सुदृष्टि सूनारको कथा समाप्त । कोई जीव श्रोत्रिय ब्राह्मण होकर मान-गर्म द्वारा पापकर्म बंध करता है और उससे शूकर, कुत्ता, चंडाल, सियार और बगुला हो जाता है। अभिप्राय यह है कि जो पहले उच्च पर्याय में था वही नीच पर्यायमें जन्म लेता है ।।१८६८।। यह जीव कभी निंदाका पात्र बनता है, कभी दरिद्री तो कभी ऐश्वर्यशाली होता है, कभी आदर, वैभव और स्तुति प्रशंसाको प्राप्त करता है, यह चिरकाल तक स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसक वेदको अनेकों बार प्राप्त करता है । अर्थात् किसी एक अवस्थामें सदा नहीं रहता है ॥१८६६।। जिसके पापका उदय है उसको निर्दोष होते हुए भी लोक सदोष मानने लग जाते हैं और जिसके पुण्यका उदय है उसको लोक दोषयुक्त होनेपर भी निर्दोष समझते हैं ।।१९००॥ स्वभावसे समान होनेपरभो कोई व्यक्ति तो जीवोंको प्रिय लगता है और कोई
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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