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________________ ध्यानादि अधिकार [ ५५३ छंद-वंशस्थनिसर्गतः कोपि समेऽपि वल्लभो विचेष्टतेऽज्योऽसुमलामवल्लभः । समानरूपे सति चंत्रिकोदप्रियो हि पक्षो अवलः प्रियोऽपरः ।।१६०१।। छन-वंशस्थ --- विचित्य मानं जगतो विचेष्टितं विचित्र रूपं भयदायि दुर्गमम् । करोति वैराग्यमनन्य गोचरं गुहिलं पूर्णमिलि ।। १६.२६ छंद-उपजातिलोकस्वभावं चपलं दुरंतं दुःखानि दातु सकलानि शतम् । निरीक्षमाणा न बुधा रमते भयंकर व्यानमिवानिवार्यम ||१९०३॥ ॥ इति लोकानुप्रेक्षा ।। अप्रिय लगता है । जैसे चन्द्रमाको चांदनीका समान उदय होनेपर भी लोगोंको शुक्ल पक्ष प्रिय लगता है और कृष्णपक्ष अप्रिय लगता है (शुक्ल पक्षमें पहली रातमें चन्द्रमा उदित रहता है और कृष्णपक्षमें पिछलो रातमें उदित रहता है अतः शुक्लपक्षमें पहली रातमें चांदनी रहतो है तथा कृष्णपक्षमें पिछली रात में । फिर भी शुक्लपक्ष मंगल कार्य आदिमें उपयुक्त माना जाता है) ।।१६०१॥ इसप्रकार जगतकी विचित्र चेष्टायें जानकर विचार कर तथा मान-गर्व अत्यंत दुःख तथा भयको देनेवाला है ऐसा सोचकर जो बुद्धिमान व्यक्ति है वह वैराग्य भाव को प्राप्त होता है, कैसे वैराग्यको प्राप्त होता है ? जो जनसाधारणके अमोचर है तथा अत्यंत कठिन है । ऐसे वैराग्यको लोकके स्वरूपका विचार करनेवाला पुरुष इसतरह धारण करता है मानो पहलेसे प्राप्त किया हो उस में अभ्यस्त हो । प्राशय यह है कि संसारकी विचित्र लीलाको जो भली प्रकारसे जान लेता है उसको अत्यंत दृढ़ वैराग्य उत्पन्न होता है ।।१९०२।। ___ यह लोक अत्यंत चपल है, दुरंत है, समस्त दुःखोंको देने में समर्थ है, इसतरहके स्वभाववाले लोकको देखनेवाले ज्ञानीजन उसमें रमते नहीं हैं, जैसे जिसको रोकना अशक्य है ऐसे भयंकर व्याघ्रको देखनेवाले पुरुष उस में रमते नहीं हैं अर्थात जैसे व्याघ्रसे भय होता है उसमें प्रीति रति नहीं होती, वैसे ज्ञानीको लोक-जगत या जगतके यावन्मात्र चेतन अचेतन पदार्थों में प्रीति नहीं होती वह हमेशा लोकसे डरता रहता है ।।१९०३।। लोकभावनाका वर्णन समाप्त ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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