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मरक foret
प्रशुभाः संति निःशेषाः पुंसां कामार्थविग्रहाः । शुभोऽत्र केवलं धर्मो लोकद्वयसुखप्रदः ॥१६०४।। अर्थो मूलमनर्थानां निर्वाणप्रतिबंधकः । लोकद्वये महादोषं दत्ते पुंसां दुरुत्तरम् ।।१६०५३। निद्यस्थानभवाः कामा भीमा लाघवहेतवः | दुःखप्रचा द्वये लोके स्वरूप काला: सुदुर्लभाः ।।१६०६ ।। मांस लिप्तासिरामा कुथितास्थिपति सतां कायकुटी कुत्स्या कुथिसे विविधैर्भूता ॥१६०७ ॥ निसर्गमलिनः कायो धाव्यमानो जलादिभिः । श्रंगार इव नायातिस्फुटं शुद्धि कदाचन ॥। १६०८ ॥
अशुचि भावना -
इस जगतमें पुरुषोंके कामभोग, धन और शरीर ये इस जगत में केवल एक धर्म ही शुभ है, इस लोक और ।।१९०४।।
सब ही अशुभ - अशुचि हैं, परलोक में सुखदायी है
संपूर्ण अनकी जड़ अर्थ है यह अर्थ मोक्षका प्रतिबंधक है, अर्थ दोनों लोकों में जिसका दूर करना अत्यंत कठिन है ऐसे महादोषको पुरुषोंके लिये देता है अर्थात् अर्थधनके निमित्तसे संसारी प्राणो, हिंसा करते हैं, चोरी, असत्य आदि पाप करते हैं इससे राजा द्वारा दण्डित होने से इस लोक में महादुःखको प्राप्त होते हैं और परलोक में नरकादि गति में महादुःख भोगते हैं ।। १६०५ ।।
ये कामभोग विद्यस्थान से उत्पन्न होते हैं, भयंकर हैं, आत्माको अत्यंत लघु-हीन करने हेतु हैं, दोनों लोकोंमें दुःखदायी हैं, अल्पकाल तक रहनेवाले हैं और बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं ।। १९०६ ।। यह मानव शरोररूपी कुटो-झोंपड़ी मांसरूपी मिट्टी से लोपो गयी है, वसाओंसे बंधी है, कुथित अस्थिरूप पत्तोंसे छाई हुई है और विविध घनावने पदार्थोंसे भरी हुई है ऐसी यह कुटी सदा हो सज्जनों द्वारा ग्लानि करने योग्य है ।।१९०७ ।। यह शरीर स्वभावसे मलिन है, जलादिसे धोनेपर भी कोयले के समान कभी भी शुद्धिको प्राप्त नहीं होता ।। १६०८ ।।