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________________ ध्यानादि अधिकार [ ५५५ छंद-उपजाति-- मेध्यान्यमेध्यानि करोयमेध्यं सद्यः शरीरं सलिलानि नूनम् । अमेध्यमिश्राणि पुनः शरीरं न तानि मेध्यं विवधात्यमेध्यम् ।।१९०६॥ अमेध्यनिर्मितो देहः शोध्यमानो जलादिभिः । अमेध्यविविधः पूर्णो न कुभ इव शुञ्जयति ॥१६१०॥ _ छंद-उपेन्द्रवज्ञा-- भवन्ति जल्लोषधयो मुनोन्द्रा धर्मेण देवाः प्रणमन्ति सेन्द्राः । यतस्ततो नास्ति ततः प्रशस्तः कल्याणविश्राण न कल्पवृक्षः ॥१६११॥ ॥ इति प्रशुच्यनुप्रेक्षा ॥ दुःखोदके भवाम्भोधों कषायेंद्रियवाचरैः । प्रास्रवः कारणं नेयं भ्रमतो भवभागिनः ।।१९१२॥ यह अशुचि शरीर पवित्र जल को तत्काल अपवित्र कर देता है। जल स्वयं अशुद्ध अपवित्र नहीं है किन्तु अशुचिर्स मिश्रित होनेसे अशुचि बनता है, पवित्र जल शरीरको पवित्र नहीं बना पाता किन्तु अपवित्र शरीर पवित्र जलको अवश्य अपवित्र कर डालता है ॥१६०६।। अशुचि-मांसरक्त आदिसे निर्मित यह शरीर जलादिके द्वारा धोये जानेपर भी शुद्ध नहीं होता, जैसे विविध मल, मूत्र, थूक आदिसे भरा हुआ घट बाहरसे जलसे धोये जानेपर भो शुद्ध नहीं होता ।।१९१७।। इस जगत में शुचि पवित्र पावन यदि कोई पदार्थ है तो वह रत्नत्रय रूप धर्म ही है, इस धर्म द्वारा मुनिजन जल्लोषधि आदि ऋद्धियोंसे संपन्न हो जाते हैं, धर्मसे युक्त मुनीन्द्रोंको इन्द्रसहित सकलदेव वंदना करते हैं। जिसकारणसे धर्मद्वारा मानव पूज्य होता है उस कारणसे धर्मसे अन्य कोई प्रशस्त पवित्र वस्तु नहीं है, धर्म ही संपूर्ण कल्याण-सुख परंपराको देनेवाला कल्पवृक्ष है ।।१६११॥ अशुचि भावना समाप्त । आस्रव भावनाका कथनकषाय और इन्द्रियरूपी जलचर मगरमच्छोंसे भरे दुःखरूपी जलसे युक्त इस संसाररूपी सागरमें संसारी जीवोंको परिभ्रमण करानेका हेतु आस्रव है ऐसा जानना
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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