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________________ ५५६ ] मरकण्डिका कर्मास्त्रवति जीवस्य संसारे विषयादिभिः । सलिलं विविधं रन्ध्रः पोतस्यैव पयोनिधौ ॥१६१३ ।। कर्मसंबंधता जाता रागदेषाक्तचेतसः । स्नेहाभ्यक्त शरीरस्य रजोराशिरिवानिशम् ॥१६१४॥ अदृश्यैश्चक्षुषा दृश्यः स्थूलैः सूक्ष्मैश्च पुद्गलैः । विविधनिचितो लोकः कुभो धूर्मरिवाभितः ॥ १६१५।। मिथ्यात्वाव्रतकोपादियोगानश्रास बान्विदुः I मिथ्यात्वमर्हदुक्तानां पदार्थानामरोचनम् ॥१६१६।। हिंसादयो मता दोषाः पचाप्यव्रतसंज्ञकाः । कोपादयः कषायाः स्यूराग षद्वयात्मकाः ।।१६ १७ ॥ चाहिये । अर्थात् जीवके संसार परिभ्रमणका कारण कर्म है और उस कर्मका भी कारण मिथ्यात्व आदि आस्रव है ।। १६१२ ।। संसारमें इस जीव के पंचेन्द्रियोंके स्पर्शादि विषयों द्वारा कमका आस्रव होता है, जैसे समुद्र में स्थित जहाज के विविध छिद्रों द्वारा जल आता है ।।१९१३ ।। राग और द्वेषसे व्याप्त चित्तवाले जीवके कर्मोंका संबंध होता है, जैसे तैलकी मालिश से युक्त शरीर के सतत धूल मिट्टिका संबंध होता है ।। १६१४|| यह लोक नेत्रद्वारा अदृश्य ऐसे सूक्ष्म पुद्गलों से तथा दृश्यमान विविध स्थूल पुद्गलोंसे ठसाठस भरा हुआ है, जैसे कोई घट धुंआसे चारों ओरसे भरा होता है । अर्थात् लोकमें सूक्ष्म और बादर दोनों प्रकारके पुद्गल निरंतर रूपसे व्याप्त हैं ।। १९१५ ।। मिथ्यात्व अविरति कषाय और योग ये आस्रव हैं। इनमें अर्हत भगवान के द्वारा प्रतिपादित जीवादि पदार्थोंको अरुचि करना अर्थात् सात तत्त्व छह द्रव्य आदिपर श्रद्धान नहीं होना मिथ्यात्व नामका आस्रव भाव जानना चाहिये ।।१९१६ || हिंसा, झूठ, चोरी, कुशोल और परिग्रह ये पांच दोष अव्रत या अविरति भाव हैं । क्रोधादि कषाय भाव अनेक हैं, वे राग और द्वेष इन दो में अन्तर्भूत होते हैं ।। १९१७ ।। अहो आश्चर्य है कि शरीरके स्वभावको जाननेवाले पुरुषको भी रागभाव घिने शरीर में कैसे रंजायमान कराता है तथा बांधवोंको क्षणमात्र में कैसे द्वष्य द्वेष
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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