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________________ ध्यानादि अधिकार [ ५५७ जानंतं कुथिते काये रागो रंजयते कथम् । बांधवं कुश्ते ध्यं द्वषो हि क्षणतः कथम् ।।१९१८॥ कल्मषं कार्यते घोरं सदष्टिरपि येजनः । रागद्वेषविपक्षास्ताधिक्संज्ञागौर वात्मनः ॥१६१६।। विषयेष्वभिलाषो यः पुरुषस्य प्रवर्तते । न ततो जायते सौख्यं पातकं बध्यते परम् ॥१९२०॥ इंद्रियार्थसुखे येन मानुष्यं प्राप्य योज्यते । भस्मार्थ प्लोषते काष्ठं महामौल्यमसौ स्फुटम् ॥१६२१॥ नत्ये योऽनसुखं मुढो धर्म मुक्त्वा निषेवते । लोष्ठं गहात्यसौ मुक्या रत्नद्वीपेऽनघं मणिम् ॥१६२२।। - ... - . . .----- करने योग्य बनाता है अर्थात् रागभाव घिने शरीरमें तो प्रीति कराता है और हितकारी बांधवोंमें देष कराता है। जिनके ऊपर प्रेम करना चाहिये उनपर दोष कराता है और जिनके ऊपर द्वष करना चाहिये उनपर राग-प्रीति कराता है ॥१६१८॥ जिन रागद्वेष द्वारा सम्यग्दृष्टि जीव भी घोर पाप करता है उन रागद्वेषरूपी वैरियोंको धिक्कार है, आहारादि संज्ञा तथा ऋद्धि गौरव आदि गौरव रूप रागद्वेषको धिक्कार है ।। १६१६॥ पुरुषके पंचेन्द्रियों के मनोहर स्पर्शादि विषयोंमें जो अभिलाषा होती है उससे सख नहीं होता किन्तु उल्टे पापबंध ही होता है अर्थात् विषयों की इच्छा करनेसे कोई सुख नहीं होता इच्छा या अभिलाषा तो महान् कर्मबंधका हेतु है। तीव्र विषयाभिलाषासे अविरतिरूप भाव होते हैं हिंसा, झूठ आदि पापचार भी तीन अभिलाषासे होता है और उससे कर्मोंका महान् आस्रव होता है ।।१९२०॥ जो महादुर्लभ मानव जन्मको प्राप्त करके उस मानव पर्यायको इन्द्रियों के विषयसुख में लगाता है, वह निश्चयसे महामूल्यवान हरिचंदन आदिरूप श्रेष्ठ काष्ठको राखके लिये जलाता है अर्थात् जैसे राख के लिये चंदन जलाना मुर्खता है वैसे इन्द्रिय सुखके लिये मानव पर्याय गमाना मूर्खता है ।। १६२१।। जो मूढ़ मानवपर्याय प्राप्त करके धर्मको छोड़कर इन्द्रिय सुखका सेवन करता है वह रत्नद्वीपमें अत्यंत मूल्यवान् रत्नको छोड़कर लोह या ढेलेको ग्रहण करता है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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