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________________ मरण कण्डिका यो नृत्वे सेवते भोगं हित्वा धर्ममकल्मषम् । असौ विमुच्य पीयूषं विषं गृहाति नंदने ।।१९२३॥ योगः कर्मास्त्रवं दुष्टो मनोवाक्कायलक्षणः । यथा भुक्तो दुराहारो विदधाति व्रणालवम् ।।१६२४।। प्रास्त्रवं कुरुते योगो विशुद्धः पुण्यकर्मणाम् । विपरीतः परं सद्यः सेवितः पापकर्मणाम् ॥१९२५॥ अर्थात रत्नद्वीपमें जाकर कोमती हीरा आदि रत्नोंको खरीदना चाहिये किन्तु कोई मूर्ख वहांपर जाकर भी लोहेको खरीदे तो उसकी बड़ी भारी अज्ञानता मानी जायगी । ठीक इसीप्रकार मनुष्य जन्म में आकर रत्न अयधर्मको आराधना करनी चाहिये । किन्तु कोई मढ़ विषय सेवन करे तो वह अज्ञानता है ।।१९२२।। जो मनुष्य जन्ममें निर्दोष धर्मको छोड़कर भोगको भोगता है वह नंदनवन में पहुंचकर भी अमृतको छोड़कर विषको ग्रहण करता है, पीता है ।।१९२३।। मन, वचन और कायको खोटो चेष्टारूप योग पापकर्मके आसवको करता है, जैसेकि खाया गया खोटा-अपथ्य आहार वण-धावमें आस्रव पोपको पैदा करता है ॥१६२४।। मन, वचन, कायकी विशुद्ध--शुभ चेष्टारूप योग सातावेदनीय आदि पुण्यकर्मोके आस्रवको करता है और इससे विपरीत मन, वचन और कायको अशुभचेष्टारूप सेवित किया गया योग तत्काल पापकर्मोके आस्रवको करता है ॥१९२५॥ विशेषार्थ-दया दान, पूजा आदिके भाव होना मनकी शुभचेष्टा है, प्रिय हित धर्म आदि रूप वाणी बोलना वचनको शुभ चेष्टा है। धैयावृत्त्य करना, परोपकार पूजा भिषक तीर्थयात्रा आदि रूप शरीरकी चेष्टा शुभकाययोग है । इन शुभ योगों द्वारा सातावेदनीय देवगति देवायु, उच्चगोत्र आदि पुण्यकर्मोंका आस्रव होता है तथा क्रूरभाय दूसरेको पीड़ा देने के भाव आदि मन को अशुभचेष्टा है, कर्कश, पिशुनता, मर्मभेदी इत्यादि वचन बोलना वचनको अशुभ चेष्टा है, शरीर द्वारा किसोका घात करना, चोरी करता धर्म विरुद्ध आचरण, व्यसन आदि रूपकायकी अशुभ प्रवृत्ति है इन अशुभ योगों द्वारा असातावेदनीय, नरकगति, नरकायु, नौगोत्र आदि पापकर्मोंका आस्रव होता है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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