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ध्यानादि अधिकार
छंद-उपजातिकुवर्शनावृत्त कषाययोगीयो भवे मज्जति कर्मपूर्णः । दुरापपारे विवरैरनेकः पोतः पयोषाविव वारिपूर्णः ॥१९२६॥
॥ इत्यालवानुप्रेक्षा ।। मिथ्यास्थमास्रवद्यारं पिषते तत्त्वरोचनम् । संयमासंयम सयो गृहीत्वारमिवाररे ।।१९२७।। कषायतस्करा रौद्रा दयादमशमायुधः । शक्यंते रक्षितु विध्यरायुधरिव तस्कराः ॥१९२८॥ इन्द्रियारवा नियम्यते वैराग्यखलिनेह ढः । उत्पथस्थिता दुष्टास्तुरगाः खलिनरिव ॥१९२६॥
मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योगों द्वारा कौके भारसे युक्त हआ जीव भवसागरमें डूब जाता है, जैसे जिसका पार पाना कठिन ऐसे समुद्र में अनेक छिद्रों द्वारा जलसे भरी हुई नौका डूब जाती है ।।१९२६।।
आस्रव अनुप्रेक्षा समाप्त
संवर अनुप्रेक्षाका वर्णनसम्यग्दर्शन, मिथ्यात्व आस्रव द्वारको ढक देता है तथा देशसंयम और सकलसंयम रूप व्रतोंको ग्रहण करके यह जीव अविरति नामा आस्रवद्वारको ढक देता है जैसे कोई पुरुष द्वारको बंदकर अर्गला-सांकल या कुदो लगाकर बाहर से प्रानेवाले चोर आदिको रोक देता है ।।१९२७।।।
क्रोधादि कषायरूप क्रूर चोर-डाक लुटेरोंको दया, इन्द्रियदमन और उपशम भावरूप शस्त्रों द्वारा रोकना शक्य है अर्थात् कषायोंको दम शम आदि भावों द्वारा रोकना चाहिये । जैसे धनके चुरानेवाले डाकू आदिको दिव्य शस्त्रों द्वारा रोकना शक्य है अथवा शस्त्र द्वारा चोर डाकूको खदेड़कर धनकी रक्षा करना शक्य है ॥१९२८।। खोटे कुगतिके मार्ग में जाते हुए दुष्ट इन्द्रिय रूपी घोड़े बैराग्यरूपी मजबूत लगाम द्वारा नियंत्रित किये जाते हैं । जैसे गड्ढे ऊबड़ खाबड़ भूमिरूप खोटे मार्ग में जाते हुए दुष्ट