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________________ ५६० । भरणकण्डिका नाक्षस निगृह्यन्ते भौषणाश्चलमानसः । वंदशूका इव ग्राह्या विद्यासंवादजितः ॥१९३०॥ अप्रमादकपाटेन जीवे योगनिरोधनम् । क्रियते फलकेनेव पोते जलनिरोधनम् ॥१६३१॥ कर्मभिः शक्यते भेत्तन चारित्रं कदाचन । सम्यग्गुप्तिपरिक्षिप्तं विपक्षरिव पत्तनम् ॥१९३२।। घोड़े लगाम द्वारा नियंत्रित किये जाते हैं ॥१९२९॥ चंचल मनवाले पुरुषों द्वारा इन्द्रियरूपी भीषण सप निगृहीत नहीं किये जा सकते । जैसे विषापहार मंत्र विद्या औषधि आदिसे रहित व्यक्ति द्वारा गिरे नार्प पा नहीं जा पा ॥१६३। भावार्थ- इन्द्रियोंको वश तब कर सकते हैं जब मन चपल न हो, मनको स्वाधीन कर लेनेपर इन्द्रियां अपने-अपने विषयोंके तरफ नहीं दौड़ती अत: कहा है कि चंचल मनवाले पुरुष इन्द्रियरूपो सर्पको निगृहीत नहीं कर सकते । जीवमें अप्रमाद रूप कपाट द्वारा मनोयोग आदि आस्रवोंका निरोध किया जाता है, जैसे नावमें फलक द्वारा जसका निरोध किया जाता है ॥१९३१।। विशेषार्थ-प्रमाद पंद्रह प्रकारका है-भक्तकथा, स्त्रीकथा, राजकथा, राष्ट्रकथा, ये चार विकथायें तथा चार क्रोधादिकषाय, पांच इन्द्रियां, निद्रा और स्नेह । स्वाध्याय आदि द्वारा विकथा प्रमादको, क्षमादि द्वारा कषायप्रमादको, अवमोदर्य एवं रसत्याग आदि द्वारा निद्राप्रमादको और बंधुत्व आदिके क्षणिकपने के चिंतन द्वारा स्नेह नामा प्रमादको जीतना चाहिये । इसतरह अप्रमाद भाव द्वारा प्रमादजन्य आसवको रोकना चाहिये । जैसे परिखा द्वारा देष्ठित नगर प्रतिपक्षी राजा द्वारा ध्यस्त नहीं किया जा सकता वैसे समीचीन मनोगुप्ति आदि द्वारा युक्त चारित्र कभी भी कर्म द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता ।।१९३२।। भावार्थ-मनोगुप्ति-वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्तियां परम संवर का सर्वोत्कृष्ट हेतु हैं, गुप्तिसे संयुक्त मुनिराजोंके नियमसे कर्मास्रव रुक जाता है-संबर होता है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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