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ध्यानादि अधिकार
[ ५६१ गुणबंधनमारा संयतः समितिप्लवं । हिंसादिमकराग्रस्तो जन्मभोधि विलंघते ॥१६३३।। द्वारपाल इष द्वारे यस्यास्ति हृदये स्मृतिः । दूषयति न तं दोषा गुप्तं पुरमिवारयः ॥१६३४।। न यस्यास्ति स्मृतिश्विसे स बोस्यते स्फुटम् । असहायोऽखिर म विचारव परिभिः ॥१९३५।।
छद-रचोखताज्ञानवर्शनचरित्रसंपदं पूर्णतां नयति स व्रती स्फुटम् । यो विमुञ्चति परोषहारिभिर्बाधितोऽपि न कदाचन स्मृतिम् ॥१९३६॥
॥ इति संवरानुप्रेक्षा ॥
सम्यक्त्व आदि गुणरूप बंधनसे युक्त समिति रूप नौका पर आरोहन करके मुनिराज हिंसा आदि मगरमच्छोंसे पीड़ित नहीं होते हुए जन्मरूप सागरका उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् ईर्या समिति आदि पंचसमितियोंसे संवर होता है ।। १६३३।।
जिसके हृदय में दरवाजे पर द्वारपालके समान वस्तुतत्त्वको स्मति मौजद है उस साधुको दोष दूषित नहीं कर सकते, जैसे सुरक्षित नगरको शत्रुगण नष्ट नहीं कर सकते हैं ।।१९३४।। जिसके हृदय में वस्तु तत्त्वको स्मृति नहीं है अर्थात् जो साधु समीचीन तत्त्व चिंतन में स्थिर नहीं होता वह नियमसे दोषों द्वारा ग्रस्त होता है, जैसे नेत्रविहीन और सहायता रहित पुरुष शीघ्र ही समस्त वैरियोंसे पराभूत हो जाता है
१६३५।। जो मुनि परीषह रूपी शत्रु द्वारा बाधित होनेपर भी कभी भी तत्त्वको स्मतिको नहीं छोड़ता, वह साधु निश्चयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी संपदाको पूर्ण रूपसे प्राप्त करता है अर्थात् परीषहों पर विजय प्राप्त करनेसे कर्मोंका संवर होता है एवं रत्नत्रय पूर्ण होता है ।। १९३६।।
विशेषार्थ-यहांपर संवरभाबनाके प्रकरणमें मिथ्यात्व आदि आस्रवोंको सम्यक्त्व आदि द्वारा रोकने का उपदेश दिया है। मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय
और योग ये आस्रव भाव हैं। इनमेंसे मिथ्यात्वरूप आलवको तत्त्वज्ञानरूप सम्यग्दर्शनसे रोकना चाहिये । अविरतिको असंयम भी कहते हैं, पांच इन्द्रियां और छठा