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________________ ५६२ ) मरण कण्डिका यो मुनिर्यवि शुद्धात्मा सर्वथा कर्मसंवरम् । करोति निर्जराकांक्षी सिद्धये विविधं तपः ॥१९३७।। न कर्मनिर्जरा जन्तोर्जायते तपसा विना । संचितं क्षीयते धान्यमुपयोगं विना कुतः ॥१६३८॥ पूर्वस्य कर्मणः पुंसो निर्जरा द्विविधा मता । प्राधा विपाकजात द्वितीया त्व विपाकजा ॥१९३९।। नानाविधानि कर्माणि गृहीतानि पुराभवे । फलानीव विपच्यते कालेनोपक्रमेण च ।।१९४०॥ -- . . - ...---- मन इनको अपने-अपने स्पर्शादि विषयों में जो प्रवृत्ति है उसको रोकनेसे इन्द्रिय अविरतिरूप पासव रुकता है तथा षटकाय जीवोंके घातरूप अविरति बाला आस्रव अहिंसा आदि व्रतों द्वारा तथा समिति द्वारा रोका जाता है । विक्रथा आदि प्रमादरूप आस्रव स्वाध्याय तपोभावना आदि द्वारा रोकना चाहिये । कषायरूप आस्रव क्षमा आदि दशधर्म, गुप्ति, परीषय, जय आदिसे रुक जाता है । योगरूप आसव तो अंतमें यथाख्यात चारित्रको पूर्णतारूप अयोग केवली अवस्था में रुकता है । इसप्रकार संवरका स्वरूप जानना-संवरका चितन करना संवर अनुप्रेक्षर है। संवर अनुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त। निर्जरा अनुप्रक्षाका स्वरूपजो शुद्धात्मा मुनि यदि सर्वथा कर्मसंबरको करने में उद्यमी है वह निर्जराका आकांक्षी हुआ मोक्षके लिये विविध प्रकारके तपश्चरणको करता है ।।१९३७॥ तपके बिना जोबके कर्मोंकी निर्जरा नहीं होती है, जैसे संचित किया गया धान्य उपयोगमें लाये बिना-भोजन प्रादिके काम में लाये बिना समाप्त नहीं होता है ।।१९३८॥ जीव के पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा दो प्रकारको मानी है, एक विपाक निर्जरा और दूसरी अविपाक निर्जरा ॥१९३९।। पूर्वजन्ममें ग्रहण किये गये अनेक प्रकार के कर्म कालके अनुसार तथा उपक्रमसे दोनों प्रकार से फल देकर निर्जीर्ण होते हैं, जैसे फल यथा समय और समयके पहले पक जाया करते हैं। अर्थात् किसी कर्मोकी निर्जरा अपना समय
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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