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ध्यानादि अधिकार
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कालेन निर्जरा ननमुवीर्णस्यय कर्मणः । तपसा क्रियमाणेन कर्म निर्जीयतेऽखिलम् ॥१६४१॥ अनिर्दिष्टफलं कर्म तपसा दह्यते परम् । सस्य हुताशनेनेत बहुभेदमुनिता ? तपसादीयमानेन नाश्यते कर्मसंचयः । प्राशुशुक्षणिना क्षिप्रं दीप्तेनेव तृणोरकरः ॥१९४३।। स्वयं पलायते कर्म तपसा विरसीकृतम् । रजोऽवतिष्ठते कुत्र नीरसे स्फटि केऽमनि ॥१९४४॥ तपसाध्मायमानोऽङ्गो क्षिप्रं शुद्धधति कर्मभिः। पाषाणः पावकेनेव कानकः सकलमलेः ॥१९४५।।
पानेपर होती है और किसोको समयके पहले तपश्चरण द्वारा होती है। आम आदि फल जैसे समयपर डालमें पकते हैं और कोई बिना समयके प्रयोग द्वारा पालमें शीघ्र पकते हैं । १६४०॥
अपना समय पाकर जो कर्मोको निर्जरा होती है वह तो केवल उदयावलो में आये हुए कर्मनिषकोंकी होती है, किन्तु तपश्चरण द्वारा अखिल कर्म निर्जीणं होता हैनष्ट होता है ।।१९४१।।
जिसका फल जीवको प्राप्त नहीं हुआ है ऐसा कर्म तपरूप अग्नि द्वारा भस्मसात हो जाता है, जैसे गेहूँ, चावल, मूग आदि बहुत भेदवाला एकत्रित किया धान्य अग्नि द्वारा भस्मसात् होता है । अर्थात तपश्चरण द्वारा फल भोगे बिना ही कर्मोको निर्जरा होती है ।।१९४२॥ मुनिजन ग्रहण किये गये तपश्चरण द्वारा कर्मों के समहको क्षणभरमें नष्ट कर देते हैं जैसे जलायी गयो अग्नि द्वारा तृणोंका समूह शीघ्र नष्ट हो जाता है ।।१६४३॥
तप द्वारा शक्तिहोन हुआ कर्म स्वयं पलायमान हो जाता है ठोक ही है, चिकनाईसे रहित स्फटिक पाषाण में क्या कहीं धूल ठहरती है ? नहीं ठहरती । उसीप्रकार तपश्चरण करनेपर कर्म नहीं ठहरता निर्जीर्ण हो जाता है ।।१९४४।।
यह संसारी जीव तपरूपी अग्निके द्वारा धौंकने पर कर्ममलसे शीघ्र शुद्ध हो