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मरणकण्डिका
मोक्षः संवरहीनेन तपसा न जिनागमे । रविणाशोष्यते नोरं प्रवेशे सति कि सरः ॥१९४६॥
छंद-रथोद्धतादर्शनद्विपमधिष्ठितो बुधो लग्यबोधसचिवस्तपः शरैः । कर्मशत्रुमपहत्य संवृतः सिद्धिसंपदमुपैतिशाश्वतीम् ॥१९४७।।
॥ इति निर्जरा ॥
जाता है, अर्थात् तपसे कर्म नष्ट होनेसे आत्मा शुद्ध बनता है, जैसे कनक पाषाण अग्नि द्वारा समस्त मलोंसे रहित शुद्ध हो जाता है ।।१९४५।।
संवरसे रहित तपश्चरण द्वारा मोक्ष प्राप्त नहीं होता है, ऐसा जिनागम में कहा है, ठीक ही है देखो! जिस सरोवर में सोरसे नया पानीका सोत प्रविष्ट हो रहा है वह सरोवर क्या सूर्य द्वारा सुखाया जा सकता है ? नहीं सुखाया जा सकता । वैसे ही नये कर्मका आगमन यदि हो रहा है तो तपसे कर्मोका नाशरूप मोक्ष नहीं हो सकता है ॥१९४६।।
सम्यग्दर्शनरूपो हाथी पर जो बैठा है, सम्यग्ज्ञानरूपी मंत्री जिसको प्राप्त है, ऐसा संवरयुक्त मुनिरूपी राजा कर्मरूपी शत्रुका नाश करके शाश्वत सिद्धिरूपी संपदाको प्राप्त करता है ॥१९४७॥
विशेषार्थ-निर्जरा भावनामें निर्जराके स्वरूप एवं भेदादिका चिंतन चलता है । प्राचीन कर्मसमूहका एक देशरूपसे झड़ना, नष्ट होना निर्जरा है । इसके मूलतः दो भेद हैं-सविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा । सविपाकनिर्जरा-काँका बंध होने के अनंतर आबाधाकालके पूर्ण होते ही कर्म प्रवाहक्रमसे एक-एक निषेक रूप उदय में आकर अपना फल देकर आरमासे पृथक होता है वह सविपाक निर्जरा है जो कि प्रतिसमय प्रत्येक संसारी जोवोंके हो रही है । इससे मोक्षमार्गमें कोई सहायता नहीं मिलती क्योंकि प्राचीन कर्म जितना निर्जीण होता है उससे अधिक नवोन बंधता जाता है। अविपाकनिर्जरा-यही निर्जरा मोक्षमागमें परम सहायक है यहो मोक्षपुरीमें पहुंचानेवाली है संपूर्ण कर्मों का निर्जीर्ण होना ही तो मोक्ष है । जो कर्म अभी उदयके योग्य नहीं हैं