________________
ध्यानादि अधिकार
मोक्षावसानकल्याण भाजनेन शरीरिणा । आहतो भावनाधर्मो भावतः प्रतिपद्यते ॥१९४८।। यशस्वी सुभगः पूज्यो विश्वास्यो धर्मतः प्रियः । सुसाध्यः सोऽन्यकार्येभ्यो मनोनितिकारकः ।।१६४६।।
उनको तपस्या द्वारा हठात् उदोर्ण करके अर्थात् उदयावलोमें लाकर असमय में निर्जीणं कर देना अविपाक निर्जरा है तथा सजातीय अन्य प्रकृतिरूप कर्मों में संक्रमण कराके नष्ट करना अविषाक निर्जरा है क्योंकि बहुतसी कर्मप्रकृतियां सजातीय कर्मों में संक्रामित होकर परमुखसे हो नष्ट होतो हैं । ज से क्षपक श्रेणि में अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान फषा संज्वलन कषायमें संक्रामित होकर नष्टको जाती हैं। इसोप्रकार अन्य कई प्रकृतियां पर में संक्रामित होकर नष्ट होतो हैं इसका सुदर विवेचन लब्धिसार क्षपणासार, धवल श्रादि सिमांत अंधों में पाया जाता है । मुमुक्षुजनोंको वहां देखना चाहिये ।
इस अविपाक निर्जराका हेतु अंतरंग बहिरंग तपस्या है। तपरूपी अग्नि में जब तक आत्मारूप सुवर्ण पाषाण नहीं तप्त किया जाता तब तक वह सिद्धपरमात्मा रूप शुद्ध सुवर्ण नहीं बन सकता यह अकाट्य नियम है । तपों में भी धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानरूप तप हो निर्जराका परमसाधन है-कारण है । इन दो ध्यानोंके बिना निर्जरा संभव नहीं है । व्रत नियम संयम समिति क्षमादिधर्म, परीषह विजय आदि को सफलता ध्यान के होनेपर होती है । बारह भावनायें ध्यान की सिद्धि में हेतु हैं । इसप्रकार निर्जराको परम उपादेयता, निर्जराका हेतु, निर्जराके भेद आदिका चिंतन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है।
धर्म अनुप्रक्षाका वर्णन-- अहंत भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्मको भावना से मोक्ष प्राप्ति तक संपूर्ण कल्याण परंपरा प्राप्त होती है, अभ्युदयरूप देव एवं मनुष्य के सुख एवं अंतिम निःश्रेयसमोक्षसुख इन सभी कल्याण परंपराओं का भाजन जीव है, इस जीव द्वारा अहंत प्रणोत धर्मभावसे प्राप्त किया जाता है अर्थात् मोक्ष के इच्छुक भव्यजीवोंको जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित जैनधर्म रत्नत्रयधर्मको सदा ही भावना करनी चाहिये एवं उस धर्मको धारण करना चाहिये ।।१९४८।।
धर्मसे हो यह जीव यशको प्राप्त करता है, सुभग-सुदर होता है, पूज्य होता है, सबके द्वारा विश्वास करने योग्य होता है, सर्वजन प्रिय होता है । धर्म हो मनको