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मरराण्डिका
धर्मः सर्वारिण सौख्यानि प्रदाय भुवनेऽङ्गिनम् । निधसे शाश्वते स्थाने निधिसुखसंकुले ॥१९५०॥ ते धन्या ये नरा धर्म जैनं सर्वसुखाकरम् । निरस्तनिखिलग्रंथाः प्रपन्नाः शुद्धमानसाः ।।१९५१॥ येऽवत्तीन्द्रियाश्वेभ्यो नीता विषय कानने। धर्ममार्ग प्रपद्यन्ते ते धन्या नरपुगवाः ।।१६५२॥ अहोटषेण रागेण लोके कीरति सर्वदा । योसरागे निरास्वारे बोधिधर्मेऽतिदुर्लभा ॥१९५३॥ तबीयं सफलं जन्म पदीयं वृसमुज्जबलम् । अन्ममृत्युनराकारिकस्त्रियनिरोधकम् ॥१६५४।।
संतुष्ट-पाल्हाद करता है । अन्य कार्य जो अर्थ उपार्जन आदि पुरुषार्थ हैं उनसे यह धर्मपुरुषार्थ सुसाध्य है सरल है ।।१६४६१
इस संसार में जोधको सभी सुखोंको देनेवाला धर्म ही है और इन संसारके सुखोंको देकर अंत में बाधारहित सुखोंसे पूर्ण ऐसे शाश्वत स्थान मोक्षमें भी धर्म ही पहुंचाता है ।।१६५०॥ शुद्ध मनवाले, संपूर्ण बाह्याभ्यंतर परिग्रहों के त्यागी वे नर-धन्य हैं जिन्होंने समस्त सुखोंकी खान स्वरूप जैनधर्मको प्राप्त किया है ॥१९५१।।
बलवान इन्द्रियरूपी अश्वोंद्वारा विषयरूपी वनके लिये जानेपर जो महापुरुष धर्ममार्गको पाप्त होते हैं वे नरपुंगव-मुनिराज इस संसारमें धन्य हैं अर्थात् किसी दुष्ट घोड़े द्वारा भयंकर जंगल में पटक देने पर जो सुरक्षित नगरके मार्गका अन्वेषण कर उस पर चल पड़ते हैं वे पुरुष श्रेष्ठ पुरुषार्थी समझे जाते हैं, वैसे इस मानवपर्यायमें मनको लभाने विषयों के मध्य फंसने पर भी जो महान् आत्मा जिनदीक्षा लेकर रत्नत्रयकी आराधना करते हैं वे श्रेष्ठ माने जाते हैं ।।१९५२।। अहो ! इस संसार में प्राय: सर्व हो जीव सर्वदा राग और द्वेषके साथ क्रीड़ा कर रहे हैं, रम रहे हैं, ऐसो स्थितिमें निरा. स्वाद बीतरागधर्ममें जीवोंकी प्रीति होना अतिदुर्लभ है ।।१९५३।।
उसो मानवका जन्म सफल है जिसका उज्ज्वल चरित्र जन्म-मरण, जराके कारणभूत कर्मों के आस्रवको रोकनेवाला है ।।१९५४।।