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ध्यानादि अधिकार
यथा यथा विवद्धते निर्वेदप्रशमादयः । प्रयास्यासन्नतां पुसः सिद्धिलक्ष्मीस्तथा तथा ॥१६५५॥
___ छंद-रथोद्धताद्वादशात्मकतपोरयंत्रितं तत्वबोधचित्तनेमिकम् । धर्मवक्रमनवद्यमाहतं विष्टपे विजयतामनश्वरम् ॥१६५६॥
॥ इति धर्मानुप्रेक्षा । धर्मे भवति सम्यक्त्वज्ञानवृत्ततपोमये । दुर्लभा भ्रमतो बोधिः संसारे कर्मतोऽङ्गिनः ।।१६५७।। संसारे वेहिनोऽनते मानुष्यमति दुर्लभं । समिलायगसांगत्यं पयोधाविव दुर्गमे ॥१६५८।।
जैसे जैसे इस जीवके निर्वेद-वैराग्य, प्रशम आदिभाव वृद्धिंगत होते जाते हैं वैसे-वैसे सिद्धि रूपी लक्ष्मी निकट आती जातो है ॥१६५५।। बारह प्रकारके तपरूपी आरोंसे जो नियंत्रित है जो तस्वबोध और तत्त्वांच रूपी धुरात युक्त है निर्दोष और अविनश्वर ऐसे अर्हन्त भगवानका धर्मचक्र इस विश्वमें सदा जयवन्त रहे ॥१९५६।।
भावार्थ-जिनेन्द्र भगवानके द्वारा प्रतिपादित रत्नत्रयधर्म जीयोंको परम कल्याण का करनेवाला है, अनुपम है, महा मंगलस्वरूप है परम शांतिकारक आत्म स्वभावरूप है, यह एक महान कल्पवृक्ष के समान फलदायक है । ऐसा चिंतन करना धर्म अनुप्रेक्षा है।
धर्म अनुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त ।
बोधिदुर्लभ अनुप्रक्षाकर्मके वशसे संसारमें भ्रमण करते हुए इस जीवके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सभ्यकचारित्र और सम्यक्तपरूप धर्ममें बोधि अत्यंत दुर्लभ है ।।१६५७।। इस अनंत अपार संसारमें मनुष्य पर्याय मिलना अत्यंत दुर्लभ है, जैसे अपार सागरके एक किनारेसे जुवा और दूसरे किनारे से उसकी लकड़ियां डाल दो जाय और वे दोनों पदार्थ उस अपार जलराशिमें बहते बहते एकत्र आकर जुवामें लकड़ी धस जाना अत्यंत कठिन है वैसे हो चौरासो लाख योनि और साढ़े निन्यानवे लाख करोड़ कुलोंमें मानव पर्यायका पाना महादुर्लभ है ।।१९५८॥