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मरणकण्डिका
प्राचुर्य गर्दा भावानां महत्त्वं जगतोऽङ्गिनाम । विधत्ते योनिबाहुल्यं मानुष्यं जन्मदुर्लभं ॥१९५६॥ देशो जातिः कुलं रूपमायु:रोगता मतिः । श्रवणं ग्रहणं थक्षा नत्वे सत्यपि दुर्लभम् ।।१६६०।।
- - - संसारमें जीवोंके निंदनीय अशुभ भावोंकी अत्यधिक प्रचुरता है अशुभभावोंसे अशुभ ही एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय नरक आदि संबंधो योनियोंकी प्राप्ति होती है, ऐसे कुयोनि बहुलताके मध्य में मानुष जन्म अतिदुर्लभ है ।। १९५६।।
विशेषार्थ-तीससी तैतालोस राज घन प्रमाण इस लोकमें सर्वत्र तिर्यच एकेन्द्रिय पर्यायको बहुलता है, विकलेन्द्रिय आदि भी बहुत हैं । नारकी और देवोंकी अपेक्षा भी मनुष्यों की संख्या अति अल्प है अर्थात् तिर्यंच में एकेन्द्रियों की संख्या अनंत है। विकलेन्द्रिय असंज्ञी एवं संज्ञी तिथंचोंको संख्या असंख्यात है । नारकी और देवोंकी संख्या भी असंख्यात है। मनुष्य तो संख्यात ही है । क्षेत्र भी तियंचका सर्वलोक है। नारको देवोंके क्षेत्र भी क्रमशः छह और सात राज प्रमाण है किन्तु मनुष्योंका क्षेत्र केवल अढाई द्वोप प्रमाण है, अत: मनुष्य जन्म प्राप्त होना दुर्लभ है।
दुर्लभ मनुष्य पर्याय मिलनेपर भी जिनधर्मयुक्त देश, उच्च जाति, कुल, सुदर रूप, दीर्घाय, नीरोग शरीर, हेयोपादेय बुद्धि, जिनधर्म श्रवण, ग्रहण और श्रद्धा अत्यंत दुर्लभ है ।।१६६०
___ विशेषार्थ-मनुष्य पर्याय मिलनेपर भी श्रेष्ठ जिनधर्मका प्रचार जिसमें है ऐसा देश मिलमा दुर्लभ है क्योंकि धर्मज्ञतासे रहित यवन शक आदि मनुष्योंके देशोंकी अधिकता है । नीचकुल और जातिको सर्वत्र बहुलता है, उच्चकुल उच्चजातिका मिलना दुर्लभ है क्योंकि प्रायः प्रज्ञ प्राणो परनिंदा और आत्मप्रशंसा करके नीच गोत्रका हो बंध किया करते हैं । आयुको पूर्णता मिलना कठिन है । सुदर रूप मिलना दुर्लभ है क्योंकि हिंसादि पाप क्रियासे अशुभनामकर्मका उपार्जन करके जीव अधिकतर विरूप हो होते हैं । कभी कदाचित् जीब गुरुसेवा आदिसे पुण्योपार्जन करके रूपवान् बनता है । तो निरोग काया मिलना सुलभ नहीं है, परजोवोंको पीड़ा संताप आदिको देकर मूर्ख प्राणी असाता कर्मका बंध करता है उससे रोगी काया प्रायः रहती है । समीचीन तत्त्वोंको