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ध्यानादि मधिकार देशाविष्वपि लब्धेष दुर्लभा बोधिरंजसा । कुपथाकुलिते लोके रागद्वेषवशीकृते ॥१६६१॥ इस्थं यो दुर्लभा बोधि लब्ध्वा सत्र प्रमाद्यति । रस्नपर्वतमारुह्य ततः पतति नष्टधोः ॥१९६२।।
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जाननेकी बुद्धि करोड़ों असंख्य भवोंमें दुर्लभ है, यह जोव ज्ञानी जनोंको दूषण लगाना, सत्यज्ञान में बाधा करना इत्यादि दुर्भावोंसे तोवमति श्रुतावरणका बंध करता है अत: ऐसी विवेक बुद्धिका मिलना सुलभ नहीं होता । बुद्धिके होनेपर भो धर्मश्रवणका मिलना दुर्लभ है क्योंकि प्रथम तो परके हितोंका उपदेश देनेवाले यतिजनोंका पाया जाना ही मुश्किल है, फिर गुणोंमें द्वेष करनेवाले तथा आलसीजन मुनिजनोंके निकट ही नहीं आते, अतः धर्मश्रवण सुलभ नहीं है । तत्त्व श्रवणके अनंतर भी उसका ग्रहण कठिन होता है-समझना कठिन होता है क्योंकि तत्त्वकी सूक्ष्मता होनेसे अथवा आत्माका उस तरफ उपयोग नहीं लगनेसे तत्त्व समझने में नहीं आता। ग्रहण-समझ लेनेपर भी उन तत्त्वों पर श्रद्धा होना-सम्यग्दर्शन होना अत्यंत कठिन है क्योंकि कालादि पांचों लब्धियोंकी प्राप्ति बिना सम्यक्त्व नहीं होती और इन लब्धियोंकी प्राप्ति अति दुर्घभ है । इसप्रकार उत्तरोत्तर दुर्लभ ऐसी वस्तुओंको प्राप्ति मुझे हुई है । अब धर्माचरण में प्रमादी नहीं होना चाहिये इत्यादि विचार करना बोधि दुर्लभ भावना है।
देश, जाति, कुल आदि संपूर्ण दुर्लभ वस्तुओंके प्राप्त होनेपर भी जिनदीक्षा रूप बोधि या रत्नत्रयको पूर्णता या समाधिमरण रूप बोधि या धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान रूप बोधि रागद्वेषके वश में हुए तथा खोटे मार्ग-मिथ्याष्टिके मार्गसे भरे हुए इस लोकमें महादुर्लभ है ।।१९६१।। जो मुनि इसप्रकारको दुर्लभ बोधिको प्राप्त करके पुनः उसमें प्रमाद करता है वह मूर्खबुद्धि रत्नोंके पर्वतपर आरोहण करके उससे गिरता है। अर्थात् जैसे कोई पुरुष बड़ी कठिनाईसे तो पहले रत्नोंका पर्वत प्राप्त करता है फिर उस अति उत्तुंगपर्वत पर बहुत मुश्किलसे चढ़ता है, इतनेपर यदि प्रमादी बन वहांसे गिरे तो वह उसकी मूर्खता है वैसे कोई भव्य मुमुक्षु अत्यंत कठिनाईमे सम्यग्दर्शन आदि को प्राप्त करता है तथा बड़ी कठिनाईसे उसके जिनदीक्षाके भाव होते हैं, जिनदीक्षाकोरत्नत्रयको पाकर भो यह प्रमाद करे तो उसको यह महामूढ़ता हो मानो जावेगी ।।१९६२।। और एकबार प्रमादवश बोधि नष्ट होगयी तो पुनः प्राप्त होना इस संसार में