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________________ ५७. ] मरणकण्डिका नष्टा प्रमादतो बोधिः संसारे दुर्लभा भवेत् । नष्टं समसि सद्रत्नं पयोधो लभ्यते कथम् ॥१९६३॥ छंद-मालिनीविपुलसुखफलानां कल्पने कल्पवल्ली भवसरणतरूणां कल्पने या कुठारी। भवति मनसि शुद्धा सा स्थिरा शुखबोधिः फलममलमलंभि प्राणित ध्यस्य तेन ॥१९६४॥ ॥ इति बोधिः ॥ द्वावशापीत्यनुप्रेक्षा धर्मध्यानावलंबनम् । नालंबनं बिना चितं स्थिरतां प्रतिपद्यते ।।१९६५॥ महादुर्लभ होगी। अंधकार स्वरूप समुद्रके मध्य में रत्नके गिर जानेपर वह कैसे मिल सकता है ? नहीं मिल सकता ।।१९६३॥ विपुल सुखरूपी फलोंको देनेमें जो कल्पलताके समान है और संसाररूपी वनके वृक्षोंको काटने में कुल्हाड़ी के समान है ऐसी यह शुद्ध बोधि जिसके मन में स्थिरताको प्राप्त होती है उस महामुनिके बोधि द्वारा मुक्तिरूपी निर्दोष फल प्राप्त हुआ ऐसा जानना-समझना चाहिये ।।१६६४|| बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा समाप्त । बारह भावनाओंका उपसंहार करते हैं ये अनित्व अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षायें धर्म्यध्यानका आलंबन है, आलंबन के बिना मन स्थिरताको प्राप्त नहीं होता है ।।१६६५। भावार्थ--ध्यानमें ध्येय अवश्य होता है तथा ध्यान की पहली अवस्था चितनरूप होती है । चिंतनके लिये विषय-अवलंबन चाहिये । यहाँपर प्रकृति में घHध्यानका वर्णन चल रहा है, घHध्यान का आलंबन द्वादश अनुप्रेक्षा है इनके द्वारा ध्यानका इच्छुक पुरुष चित्तकी एकाग्रताका अभ्यास करता है । इसप्रकार धर्म्यध्यानका आलंबन रूप भावनाओंका कथन करके आगे यह कहते हैं कि ध्यान के अवलंबन इतने ही नहीं हैं
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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