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ध्यानादि अधिकार
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प्रालंबनगो लोको साबुदाणा हिनः । यदेवालोकते सम्यक् तवेवालंबनं मतम् ।।१९६६॥ धर्मध्यानमति क्रांतो यदा भवति शुरधीः । शुद्धलेश्यस्तदा ध्यानं शुक्लं ध्यायति सिद्धये ।।१९६७।। गयं-पृथक्त्ववितर्कवीचारकत्ववितर्कावीचारसूक्ष्मक्रिया समुच्छिन्नक्रियाणि येक योगकाययोगायोगध्येयानि चत्वारि शुक्लानियथार्थानि ॥१९६८।।
- .....-- - ध्यानके इच्छुक मुनिके लिये यह लोक आलंबनोंसे भरा पड़ा है, योगीजन जिस पदार्थको सम्यतया देखते हैं वही पदार्थ उनके ध्यानका आलंबन बन जाता है ॥१९६६।।
भावार्थ-निर्विकार भावसे ममत्व भावसे रहित होकर जो कोई वस्तु देखो जाय वही ध्यानका ध्येय हो सकता है, किसी भी जीवादि तत्वोंपर मन केन्द्रित किया जा सकता है।
इसप्रकार धर्म्यध्यानका कथन पूर्ण हुआ।
शुक्लध्यानका वर्णन-- अब शुद्ध बुद्धिवाला योगी धर्माध्यानको पूर्ण करके आगे बढ़ता है तब मोक्षके लिये शुक्ल लेश्यासे युक्त हो शुक्लध्यानको ध्याता है ॥१९६७।।
अब गद्य द्वारा शुक्लध्यानके नाम आदि बतलाते हैं
पृथकत्व वितकं वीचार, एकत्व अवितर्क वोचार, सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति और समुच्छिन्न क्रिया ये पार शुक्लध्यानके भेद हैं । इनमें पहला शुक्लध्यान मनोयोग आदि तीनों योगों द्वारा ध्याया जाता है, दूसरा तीन योगों में से किसी एक योग द्वारा ध्याया जाता है, तीसरा केवल काययोग द्वारा ध्याया जाता है एवं अंतिम शक्लध्यान योग रहित अयोग द्वारा संपन्न होता है ।
शुक्लध्यान पीतादि लेश्यावालेके न होकर केवल शुक्ल लेण्यावालेके ही होता है तथा इसमें अत्यंत शुक्ल-पवित्र परिणाम अपूर्व अपूर्व परिणाम होते हैं, आत्मा