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मरगाकण्डिका
वितर्को भण्यते तत्र श्रुत, ध्यानविचक्षणः । अर्थव्यंजनयोगानां घोचारः संक्रमो बुधः ॥१६६६॥ तत्र द्रख्याणि सर्वाणि ध्यायता पूर्ववेदिना । भेवेन प्रथमं शुक्लं शांतमोहेन लभ्यते ।।१९७०॥
को अत्यंत शुचि-भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्मरूप मलसे रहित शुद्ध करनेवाला यह ध्यान है अतः सार्थक नामवाला यह शुक्लध्यान हे "शुचिगुण योगात् शुक्लं" 1१९६८।।
पहले ध्यानका शब्दार्थ कहते हैं
पृथक्त्व मायने नाना-अनेक होता है । ध्यानमें विचक्षण पुरुषोंने वितर्कका अर्थ श्रुत किया है, अर्थोका, व्यंजनोंका और योगोंका परिवर्तन हाना वीचार है ऐसा बुद्धिमान् द्वारा प्रतिपादन किया गया है ।।१६६६।। चौदह पूर्वोके पारगामी मुनिराज द्वारा जीवादि सभी द्रव्यों को ध्याया जाता है, इन द्रव्योंको ध्याते र उपशांत मोहवाले मुनिके पहला शुक्लध्यान होता है ॥१९७०।।
विशेषार्थ-पृथक्त्व वितर्क योचार नामका पहला शुक्लध्यान है । पृथक्त्व शब्दका अर्थ है नाना अनेकपना, श्रुतज्ञान अथवा भूतज्ञानका विषयभूत पदार्थ या शब्दश्रुतको वितर्क कहते हैं । अर्थ-द्रव्य, व्यंजन-शब्द-सूत्र आदि रूप आगम वाक्य और मनोयोग आदि योग इन तीनोंका परिवर्तन होना वीचार शब्दका अर्थ है। अर्थात् पहले शुक्ल ध्यान में ध्येयभूत जो वस्तु है, जोवादि पदार्थ है, उनका परिवर्तन होता है, जिस आगम वाक्यका आलंबन लिया था उसका भी परिवर्तन होता है अर्थात् शुक्लध्यानमें मुनिराज पहले जीव पदार्थको चितनका ध्यानका विषय बनाकर पुनः उसे छोड़कर अन्य पदार्थका ध्यान करने लग जाते हैं तथा पहले किसी विवक्षित आगम वाक्यका आलंबन लेकर पुनः उसको छोड़ अन्य किसी आगम वाक्यका आलंबन लेते हैं। इसी परिवर्तनको अर्थ और व्यंजनोंको संक्रान्ति रूप वीचार कहते हैं तथा वे मुनिराज मनोयोग युक्त होकर ध्यानमें स्थित होकर पुनः उसे छोड़ वचन-योग आदिसे युक्त हो ध्यान करने लगते हैं इसतरह अर्थ, व्यंजन और योग इन तीनोंका परिवर्तन जिस में हो यह पहला शुक्लध्यान है। किन्तु ध्यान रहे कि यह अर्थ, व्यंजन आदिका