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ध्यानादि अधिकार
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ध्यायता पूर्ववक्षेण सीणमोहेन साधुना । एक द्रव्यमभेदेन द्वितीयं ध्यानमाप्यते ॥१९७१॥
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परिवर्तन बुद्धिपूर्वक नहीं होता है । इस प्रथम ध्यानको मुख्यतया चतुर्दश पूर्वघट मुनि ध्याते हैं । इसमें श्र तज्ञान सहारा अवश्य रहता है इसलिये तथा श्रृ त में कथित अर्थका सहारा रहता है अथवा द्रव्यश्रु त जो शब्दात्मक है उसकी सहायता रहतो है अतः यह ध्यान वितर्कयुक्त कहा जाता है इसप्रकार पृथक्-नाना वितर्क और अर्थादिक जिसमें होते हैं वह पृथक्त्व वितर्क धीचार ध्यान कहलाता है । इस ग्रंथमें प्रथम शुक्लध्यानके स्वामी उपशांत मोह नामके ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज होते हैं ऐसा बताया है । राजवातिक आदि ग्रंथों में सातिशय अप्रमत्तसे उपशांत मोह तकके गुणस्थानवर्ती मुनिराज इसके स्वामी निर्दिष्ट किये गये हैं । अस्तु ! यह ध्यान कर्मकाष्ठ राशिको भस्म करने में अग्निवत् है।
दूसरे शुक्लध्यानके स्वामी एवं स्वरूपका कथन करते हैं
क्षीणमोह नामके बारहवे गुणस्थानवर्ती चतुर्दश पूर्वघट मुनिराज द्वारा दूसरा एकत्व वितर्क अवीचार नामा शुक्लध्यान ध्याया जाता है । इसमें किसी एक विवक्षित अर्थ-द्रव्य का अभेदरूपसे प्रालंबन रहता है ।। १९७१।।
विशेषार्थ-दूसरे शुक्लध्यानका नाम है एकत्व वितर्क अवीचार, एकत्व अर्थात् एकरूप, वितर्क अर्थात् यह पूर्वज्ञान धारी छ चस्थ मुनीश्वर द्वारा ध्याया जाता है अत: श्रु तके आलंबनसे युक्त है ! इसमें अर्थ व्यंजन और योगोंकी संक्रांति-परिवर्तनबदलना नहीं होता अतः बोचार रहित अवीचार है । आशय यह है कि यह ध्यान रत्नों को दोपशिखावत् अकंप अडोल है बदलाहट से रहित है। किसी एक श्रुत वाक्यका आश्रय लेकर यह प्रवृत्त होता है । योग भी इसमें कोई एक ही रहेगा। इसप्रकार ध्येयके परिवर्तन रहित यह एकत्व वितर्क शुक्लध्यान है। इस ध्यान द्वारा क्षोणमोह नामके बारहवें गुणस्थानवर्ती योगीश्वर ज्ञानावरण दर्शनावरण और अंतराय नामा शेष तोन घातिया कर्मों को भस्मसात् कर डालते हैं । मोहनीय कर्मका निर्मूलन तो प्रथम शुक्लध्यान द्वारा हो चुकता है [अथवा इस ग्रंथ तथा अन्य धवल आदि ग्रंथकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका नाश धय॑ध्यान द्वारा माना गया है।]