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मरणकण्डिका
सर्वभावगतं शक्लं विलोकितजगत्त्रयं । सर्वसूक्ष्मनियो योगी तृतीयं ध्यायति प्रभुः ॥१९७२॥ अयोगकेवली शुक्लं सिद्धिसौघमियासया । चतुर्थ ध्यायति ध्यानं समुच्छिन्नक्रियो जिनः ॥१९७३॥
तृतीय शुक्लध्यानका स्वरूप एवं स्वामी-सर्वद्रव्य और सर्वपर्यायगत तथा जगत्त्रयके विलोकन स्वरूप तृतीय शुक्लध्यान है, सूक्ष्म हो गयी है वचन और कायकी क्रिया जिसके ऐसे सयोगो जिनेन्द्र प्रभु इस ध्यानके स्वामी हैं ।।१९७२।।
विशेषार्थ-सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति नामका यह तीसरा शुक्लध्यान है। यह तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरहंत सर्वज्ञ देवके होता है। सर्वज्ञदेव सर्वव्य सर्व पर्यायोंको जगत्त्रय एवं कालत्रयको युगपत् जानते देखते हैं अतः इस ध्यानको सर्वद्रव्य पर्यायगत कहा है । यह ध्यान तेरहवें गुणस्थानके अंतिम अन्तर्मुहूर्त कालमें होता है उससमय संपूर्ण योग निरोध अर्थात् दिव्यध्यान देशदेशमें विहार रूप क्रियायें समाप्त हो चूकती हैं । इसतरह इसमें बाह्य क्रियारूप योगका निरोध रहता है । लथा यहां मनोवर्गणाका आलंबन लेकर होनेवाला मनोयोग और वचन वर्गणाका आलंबन लेकर होनेवाला वचनयोग भी नहीं रहता केवल सूक्ष्मकाय योग है । सूक्ष्मक्रियाका अप्रतिपात-अभी अभाव नहीं है, सूक्ष्म एकमात्र काय योगरूप क्रियाका जिसमें अस्तित्व है वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति है इसप्रकार यह अन्वर्थ नामवाला तृतीय शुक्लध्यान है।
___ चतुर्थ शुक्लध्यानके स्वामी एवं स्वरूप-- ___ नष्ट हो चुकी काययोगरूप क्रिया जिनको ऐसे तथा सिद्धिरूप प्रासादको प्राप्त करने वाले अयोगी जिन-चौदहवें गुणस्थानवी अयोग केवली अरहंतदेव चौथे व्युपरस क्रिया नामके शुक्लध्यानको ध्याते हैं ।।१९७३।।
विशेषार्थ-प्रयोगकेवली जिन चतुर्थ शुक्लध्यानके स्वामी हैं । इस ध्यान में संपूर्ण योगरूप क्रिया नहीं रहती अतः "व्युपरतक्रिया" यह सार्थक नाम है। इससे अघातिया कर्मोको पच्चासी प्रकृतियां नष्ट होती हैं। इसतरह समस्त अठारह हजार शीलोंके स्वामी, चौरासी लाख उत्तरगुणोंसे परिपूर्ण अयोगी जिन सर्व कर्मभारसे रहित होकर अष्टम ईषत् प्राग्भार-नामा पृथिवी-सिद्ध शिलापर जाकर सदा-सदाके लिये