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ध्यामादि अधिकार
इत्थं यो ध्यायति ध्यानं गुणधषिगतः शनम् । निर्जरी कर्मणामेष क्षपकः कुरुते पराम् ॥१९७४॥ तपस्यवस्थितं चित्रं चिरं निानसंवरम् । ध्यानेन संवृतः क्षिप्रं जयति क्षपकः स्फुटम् ॥१६७५।। प्रायषं योगिनो ध्यानं कषाय समरे परम । निनिः संस्तरे, युद्ध निरस्त्र भटसन्निभः ॥१९७६।।
विराजमान होते हैं । जो सदा अनंत अव्याबाध, निर्द्वन्द्व, परिपूर्ण सुख आनंदमें मग्न रहते हैं।
___ इसप्रकार शुक्लध्यानका वर्णन पूर्ण हुआ। आगे ध्यानका माहात्म्य बतलाते हैं
इस प्रकार गुणश्रेणीको प्राप्त जो साधु परम प्रशस्त शुक्लध्यानको ध्याता है वह क्षपकति कर्मोका महान् निर्जराको करता है ।।१९७४।।
जो मुनि ध्यानरूप संवरसे रहित है और चिरकाल तक अनेक प्रकारके अनशन आदि तप करता है उसको ध्यानसे संवर करनेवाला क्षपक मुनि शीघ्र ही जीतता है। यह निश्चित है। अर्थात् कोई साधु ध्यान नहीं करता केवल बाह्य तपश्चरणमें लगा रहता है वह चाहे करोड़ों वर्ष तप करनेवाला है किन्तु उससे ध्यानको करनेवाला साधु अधिक श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि बाह्य तपके द्वारा जो निर्जरा करोडों वर्षों में भी नहीं हो पाती वह निर्जरा ध्यानस्थ साधुके अन्तर्मुहूर्त में हो जाती है ।।१९७५।।
__ कषायका नाश करनेवाले समरभूमि में योगीरूप सुभटका सर्वोत्कृष्ट शस्त्रध्यान है । जो संस्तरमें स्थित क्षपक ध्यान रहित है, जिसके पास ध्यानरूप शस्त्र नहीं है वह क्षपक मुनि उस भट-योद्धाके समान है जो युद्धभूमिमें तो आया है किन्तु शस्त्रतलवार, धनुष आदिसे रहित है । अर्थात् जैसे युद्ध में उतरे सैनिकके पास शस्त्र नहीं हो तो उसका युद्ध में आना व्यर्थ है, वह शत्रुको जीत नहीं सकता वैसे समाधिके इच्छुक संस्तरमें स्थित क्षपकके पास यदि धर्म्यध्यान आदिरूप शस्त्र नहीं है तो वह कषायरूप शत्रुका एवं कर्मरूप शत्रुका नाश नहीं कर सकता ॥१९७६।।